पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

११०० वायुपुराणम् ॥६३ तत्र गृध्रे गुहायां च पिण्डदः शिवलोकभाक् । तत्र गृध्रे वटं नत्वा प्राप्तकामो दिवं व्रजेत् ऋणमोक्षं पापमोक्षं शिवं दृष्ट्वा शिवं व्रजेत् । शूलक्षेत्रं च तत्राऽऽस्ते पिण्डदः स्वर्नयेत्पितॄन् ॥६४ तं दृष्ट्वा सुच्यते विध्नैः पितृन्ब्रह्मपुरं नयेत् ॥६५ नितम्बे मुण्डपृष्ठस्य देचदारुवनं त्वभूत् । मुण्डपृष्ठारविन्दाद्री दृष्ट्वा पापं विनाशयेत् ॥ गयानाभौ सुषुम्नायां पिण्डद: स्वर्नयेत्पित्न

  • शिलाया वानपादे तु स्थापितः प्रेतपर्वतः । धर्मराजेन पापेभ्यो गिरिः प्रेतशिलाहृयः

पादेन दूरे निक्षिप्तः शिलायाः पादभारतः । गतः शिलायाः संसर्गात्प्रेतकूट: पवित्रताम् प्रेतकुण्डं च तत्राऽऽस्ते देवास्तत्र पदे स्थिताः । तत्र कुण्डादिकं कृत्वा प्रेतत्वान्मोचयेत्पितॄन् ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६ गृध्रश्वर का निवास स्थान है। मनुष्य वहाँ गृध्रेश्वर का दर्शन पूजनादि कर शम्भु का लोक प्राप्त करता है । खास वृध्र गिरि की गुफा में पिण्डदान करनेवाला भी शिवलोकगामी होता है । उसो गृध्रकूट पर वट को नमस्कार करनेवाला मनुष्य अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्तिकर स्वर्ग प्राप्त करता है । वहाँ पर स्थित भगवान् शंकर का दर्शन कर प्राणी ऋण एवं पाप से मुक्ति प्राप्त करु शिवलोकगामी होता है। उसी गृध्रकूट पर एक शूलक्षेत्र नामक तीर्थ है, वहीं पिण्डदान करनेवाला अपने पितरों को स्वर्ग पहुँचाता है । उस गयासुर के ऊपर रखी गई शिला का उदर देश आदिपाल नामक गिरि से आक्रान्त है, उस पर विघ्नों के विनाशक विघ्नेश्वर गणेश गजरूप धारण कर अवस्थित हैं। उनका दर्शन करनेवाला विघ्नों से मुक्त होकर अपने पितरों को स्वर्ग पहुँचाता है |६१-६५। मुण्डपृष्ठ के नितंम्च प्रदेश में देवदारू का वन था, मुण्डपृष्ठ एवं अरविन्दादि का दर्शन करनेवाला अपने पाप कर्मों को विनष्ट करता है। गयापुरी की नाभिस्थली, में जो सुषुम्ना नाम से विख्यात है, पिण्ड प्रदान करनेवाला अपने पितरों को स्वर्ग प्राप्त कराता है | शिला के बाएं चरण पर प्रेतगिरि नामक एक पर्वत धर्मराज ने स्थापित किया था, यह प्रेतगिरि पहले पापों के कारण अति- शय मलिन था, इसी कारण इसका नाम प्रेतशिला कहा जाता था । धर्मराज ने अपने पैरों से इसे उठाकर फेंक दिया । उक्तशिला के संसर्ग के कारण यह पवित्रता को प्राप्त हुआ । वहीं पर एक प्रेतकुण्ड नामक कुण्ड है, जिसके कारण प्रान्त में देवताओं का निवास है, वहाँ पिण्डदानादि करनेवाला प्राणी अपने पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाता है। इस गयातीर्थ में पितरों की मुक्ति के लिये श्राद्धादि सम्पन्न करनेवाले प्राणियों

  • इतः परमयं श्लोकोऽधिकः ख. पुस्तके --श्राद्धं सपिण्डकं कृत्वा पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत् । जनार्दनाय मेषाय

समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ इति ॥