पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२०

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अष्टाधिकशततमोऽध्यायः १०६६ ॥५५ अगस्त्यस्य पदे स्नातः पिण्डदो ब्रह्मलोकगः | (÷ ब्रह्मणस्तु वरं लेभे माहात्म्यं भुवि दुर्लभम् ॥५४ लोपामुद्रां तथा भार्या पितॄणां परमां गतिम् ।) तत्रागस्त्येश्वरं दृष्ट्वा सुच्यते ब्रह्महत्यया अगस्त्यं च सभायं च पितृन्ब्रह्मपुरं नयेत् | दण्डिनाइथ तपस्तेपे सीताद्रेर्दक्षिण गिरौ वटो वटेश्वरस्तत्र स्थितश्च प्रपितामहः । तदने रुक्मिणीकुण्डं पश्चिमे कपिला नदी | कपिलेशो नदीतीरे अमासोमसमागमे ॥५६ कपिलायां नरः स्नात्वा कपिलेशं समर्च्य च | कृते श्राद्धे पिण्डदाने पितरो मोक्षमाप्नुयुः अग्निधारा गिरिवरादागताद्यन्तकादनु | [ x तत्र सारस्वतं कुण्डं सरस्वत्या प्रकल्पितम् शुक्रस्तत्र सुतैः सार्धं स ( ष ण्डामर्कादिभिः प्रभुः । तत्र तत्र सुनन्द्रोणां पदेषु मुनिसत्तम ॥ श्राद्धपिण्डादिकृत्स्नातः पितृ स्तारयते नरः शिलाया वामहस्तेऽपि गृध्रकूटो गिरिधृतः ] | गृध्ररूपेण संसिद्धास्तपस्तप्त्वा महर्षयः अतो गिरिगृ ध्रकूटस्तत्र गृध्रेश्वरः स्थितः । दृष्ट्वा गृध्रेश्वरं नत्वा यायाच्छंभोः पदं नरः . ॥५७ ॥५८ ॥५६ ।।६० ॥६१ ॥६२ अगस्त्य तथा धर्मराज विद्यमान हैं |४६ ५३ अगस्त्य के चरण प्रान्त में स्नानकर पिण्डदान करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोकगामी होता है । पृथ्वी भर में दुर्लभ वरदान को तथा लोपामुद्रा को महर्षि अगस्त्य ने ब्रह्माजी से यह प्राप्त किया था। यह परम पुनीत स्थल पितरों को परमगति देने वाला है। वहाँ अगस्त्येश्वर का दर्शन करने वाला मनुष्य ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है । स्त्री समेत महर्षि अगस्त की पूजा करने वाला मनुष्य अपने पितरों को ब्रह्मलोक पहुँचाता है | सोताचल के दाहिने भाग में जो पर्वत है, उस पर दण्डो ने तपस्या को थी । वहाँ वटेश्वर नामक वट वृक्ष है, जिसके नीचे पितामह ब्रह्मा का निवास स्थान है। उसके आगे रुषिमणीकुण्ड नामक तीर्थ है, पश्चिम में कपिला नामक नदी है | उस नदी के तट पर कपिलेश का स्थान है। सोमवती अमावास्या के संयोग पर कपिला नदी में स्नानकर कपिलेश की विधिवत् पूजाकर पिण्डदान एवं श्राद्धादि करने से पितरगण मोक्ष की प्राप्ति करते हैं |५४-५८ गिरिवर उद्यन्तक के साथ लगी हुई एक अग्निधारा प्रवाहित होती है। वहीं पर एक सरस्वती द्वारा प्रतिष्ठापित सारस्वत नामक कुण्ड है । परमऐश्वर्यशालो पण्डामर्क प्रभृति पुरोहितों के साथ शुक्राचार्य वहाँ स्थित हैं। मुनिमत्तम ! उस पवित्र स्थानपर उन मुनिवरों की पूजा एवं श्राद्ध पिण्ड दानदि करनेवाला मनुष्य अपने पितरों का उद्धार करता है |५९-६०१ शिला के बाएं हाथ में एक अन्य गृध्र-कूट नामक गिरि धारण किया गया है, अनेक महान् ऋषियों ने गृध का स्वरूप धारणकर ने वहां पर तपस्था कर परम सिद्धि प्राप्त की थी। इसी से उस पर्वत का नाम गृध्रकूट पड़ गया, वहीं पर

धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके न विद्यते । X धनुश्चिह्लान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके न विद्यते ।