पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१११६

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अष्टांधिकशततमोऽध्याय | पापेभ्यश्योपपापेभ्यो सुच्यते पितृभिः सहः | यत्र कुत्रापि देवेर्षे भरतस्याऽऽश्रमे नरः ॥ स्नातः श्राद्धादिकं कुर्यात्तत्कल्पोऽपि न हीयते ] ॥३४ ॥३५ गयायां चाक्षयं श्राद्धं जपहोमतपांसि च । सर्वमानन्त्यमाहुर्वै यद्दत्तं भरताश्रमे चतुर्युगस्वरूपेण चतस्त्रो रविमूर्तयः | दृष्टाः स्पृष्टाः पूजितास्ताः पितॄणां मुक्तिदा ( यि) काः ॥३६ [ x मुक्तिर्वामन इत्येव तारकास्यो विधिः परः । संसारार्णवतप्तानां नावावेतौ सुरेश्वरौ ॥ तारकं ब्रह्म विश्वेषां मृतानां जीवितामिदम् . त्रिविक्रमं च ब्रह्माणं यः पश्पेत्पुरुषोत्तमम् । पितृभिः सह धर्मात्मा स याति परमां गतिम्] शिलाया वामपादेऽपि तथाऽभ्युद्यन्तको गिरिः | स्थापितः पिण्डदस्तत्र पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत नैमिषारण्यपार्श्वे तु ईथे ब्रह्मा सुरैः सह । मुख्यसंज्ञं हि तत्तीर्थं देवास्तत्र पदे स्थिताः त्रिषु तेषु पदेष्वेव तीर्थेषु मुनिसत्तम । यत्किचिदशुभं कर्म तत्प्रणश्यति नारद ÷ तन्नैमिषवनं पुण्यं सेवितं पुण्यपौरुषः । तत्रः व्यासः शुकः पैलः कण्वो वेधाः शिवो हरिः १०६५ X धनुचिह्नान्तर्गतग्ग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति । ÷ इत आरभ्य चोद्यन्तको गिरिरित्यन्तग्रन्थो नास्ति ख. पुस्तके | ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ हो जाते हैं । देवर्षि ! भरत के पुनीत आश्रम मे जहाँ कहीं भी स्नान कर मनुष्य श्राद्धादि कर्म सम्पन्न करे, वे श्राद्धादि कल्प पर्यन्त फल देनेवाले होते है । यूं तो सारी गयापुरी में जप, हवन, तपस्था - सभी अक्षय फलदायी कहे जाते हैं । भरत के पुनीत आश्रम में जो कुछ दान किया जाता है, वह अनन्त फलदायी कहा जाता है | ३१-३५। चारों युगों का स्वरूप धारण कर सूर्य की चार मूर्तियां वहां प्रतिष्ठित हैं, उनके दर्शन, स्पर्श, पूजन करने से पितरों को मुक्ति की प्राप्ति होती है । मुक्ति और वामन तारक नामक दो वहाँ अन्य मूर्तियाँ है, संसार सागर मे सन्तप्त प्राणियों के लिये वे दोनों सुरेश्वर नौका स्वरूप है । सभो मृत एवं जीवित- प्राणियों के उद्धारक एक मात्र ब्रह्मा है । जो पुरुषोत्तम त्रिविक्रम वामन देव का दर्शन करता है, वह धर्मात्मा अपने पितरों समेत परम गति को प्राप्ति करता है । शिला के बाएँ चरण पर भी अभ्युद्यन्तक नामक गिरि प्रतिष्ठित है, उक्त स्थान पर पिण्डदान करनेवाला अपने पितरों को ब्रह्मपुर पहुँचाता है | ३६-३९। पुनीत नैमिषारण्य के समीप में अन्यान्य देवताओं के साथ ब्रह्मा ने यज्ञ का अनुष्ठान किया था, उसका नाम मुख्यतीर्थ है उसके चरणो में देवगण का निवास है। मुनिसत्तम नारद जी ! उस पुनीत तीर्थ के केवल तीन चरण भूमि में मनुष्य के जो कुछ भी अशुभ कर्म होते है | सभी नष्ट हो जाते हैं । वह पवित्र नैमिषारण्य पुण्य पुरुषों द्वारा सेवित है वहां व्यास, शुक, पैल, कण्त्र, वेषा, शिव, हरि प्रभृति देवगणों का निवास स्थान में