पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१११५

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१०६४ वायुपुराणम् स्थापितं धर्मं सर्वस्वं लोकस्यास्य निदर्शनात् ।] मतङ्गस्य पदे श्राद्धी सर्वास्तारयते पितॄन् रामतीर्थे नरः स्नात्वा रामं सीतां समयं च । रामेश्वरं प्रणम्याथ न देही जायते पुनः शिलाया जघनं भूयः समानान्तं नगेन तु | धर्मराजेन संप्रोक्तो न गच्छेति नगः स्मृतः यमराजधर्मराजौ निश्चलार्थं व्यवस्थितौ । ताभ्यां बलं प्रयच्छामि पितॄणां मुक्तिहेतवे द्वौ श्वानौ श्यामशवलो वैवस्वतफुलोद्भवौ | ताभ्यां वल प्रयच्छामि स्यातामेतार्वाहंसको ऐन्द्रावारुणवायव्ययाम्यनैर्ऋत्यसंस्थिताः । वायसा प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयाऽपित्तम शिलाया दक्षिणे हस्ते स्थापितः कुण्डपर्वतः । तिमिरादित्यईशानभर्गावेते महेश्वराः व वरुणौ रुद्राश्चत्वारः पितृमोक्षदाः । [+ भरताश्रममासाद्य तान्नमेत्पूजयेन्नरः आश्रम की स्थापना हुई । उस मतङ्ग पद में श्राद्ध करनेवाला प्राणी अपने समस्त पितरों का उद्धार करता है । पुनीत रामतीर्थ में स्नान कर मामव राम और सीता की पूजा कर तथा रामेश्वर को प्रणाम कर पुनः शरीर नहीं धारण करता |२७| उस शिला का जघन प्रान्त पर्वत से आकारत है, धर्मराज ने स्वयं उससे कहा था कि तू मत जा, इसी कारण से उसका नाम नग (न जाने वाला) कहा जाता है। उस स्थान पर यमराज और धर्मराज गयासुर को निश्चल करने के लिये व्यवस्थित हैं, पितरों को मुक्ति प्राप्त हो इस अभिलाषा से में उन दोनों को बलि प्रदान करता हूँ | दो श्वान, श्याम और शवल वहाँ पर स्थित हैं जो यवस्वत के कुलोत्पन्न हैं | उन दोनो को वलि प्रदान करता हूँ, इससे वे अपनी हिंसकवृत्ति छोड़ दें |२८-३०१ पूर्व पश्चिम, वायव्य, दक्षिण, नैऋत्य प्रभृति दिशाओं में रहनेवाले काग पृथ्वी पर दिये गये मेरे पिण्ड को अंगीकार करें। शिला के दाहिने हाथ पर कुण्ड नामक पर्वत की स्थापना हुई है, वहां तिमिरादित्य, ईशान, भगं, महेश्वर अग्नि, दोनों वरुण तथा चारों रुद्र स्थापित हैं जो पितरों को मुक्ति प्रदान करनेवाले है । पुनीत भरत के आश्रम में जाकर मनुष्य को उनकी पूजा एवं नमस्कार करना चाहिये । पासकों एवं उपपातकों से मानव एवं उसके पितरगण सभी मुक्त ग्रैं इत उत्तरमेते श्लोका मुद्रितपुस्तफटिप्पण्यामधिका उपलभ्यन्ते ते यथा- ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ||३० ॥३१ ॥३२ ॥३३ यमोऽसि यमदूतोऽसि वायसोऽसि महावल । सप्तजन्मकृतं मापं चलि भुत्क्वा विनाशय ॥१॥ रामे वनं गते शैलमागत्य भरतेन हि । पितुः पिण्डादिकं कृत्वा रामेश: स्थापितोऽत्र वै ॥२॥ स्नात्वा नत्वा च रामेशं रामसीतासमन्वितम् । तत्र श्राद्धं सपिण्डं च कृत्वा विष्णुपुरं व्रजेत् ||३|| पितृभिः सह धर्मात्मा कुलानां च शतैः सह ॥ इति । + एतचिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके न विद्यते ।