पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०७

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१०८६ वायुपुराणम् अर्ध्यादिना समभ्यर्च्य धर्मः प्रोचे तथेति तम् । धर्मव्रतां समानीय दत्तवांस्तां मरीचये

  • ब्राह्मणाय विवाहेन धनरत्नादिकं ददौ । वरं च दत्तवांस्तस्मै तद्वाक्यं यत्तथा कृतम् ॥

अग्निहोत्रेण सहितां स्वाश्रमं तां द्विजोऽनयत् रेमे मुनिस्तया सार्धं यथा विष्णुः श्रिया सह । पार्वत्या च यथा शंभुः सरस्वत्या यथा ह्यजः जज्ञे पुत्रशतं तस्यां मरीचेविष्णुनोपमम् | मरीचिः फलपुष्पार्थं वनं गत्वा समागतः +श्रान्तः कदाचित्तां पत्नीमुवाचेति पतिव्रताम् । भुक्त्वा तु शयनस्थस्य पादसंवाहनं कुरु धर्मव्रता तथेत्युक्त्वा शयनस्थस्य सा मुनेः । पादसंवाहनं चक्रे घृतेनाभ्यज्य तत्परा निद्रायमाणेऽथ मुनौ ब्रह्मा तं देशमागतः । x इयेष दृष्ट्वा ब्रह्माणं मनसाऽर्चयितुं प्रभुम् पादसंवाहनं कुर्या कि पूज्योऽयं जगद्गुरुः । इत्याकुला समुत्तस्थौ मत्वा सा तं गुरोर्गुरुम् ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ कन्या मुझे दे दो. तुम्हारा परम कल्याण होगो ११३-१६। मुनि की बातें सुन धर्म ने अर्ध्यादि से पुनः पूजन किया और उनके प्रस्ताव का अनुमोदन किया। वन प्रान्त से धर्मव्रता को अपने निवास पर लाकर विधिपूर्वक विवाह कर्म सम्पन्न करके मरीचि को समर्पित किया। उस मङ्गल कार्य के उपलक्ष्य में ब्राह्मणों को घन रत्नादि भो समर्पित किये | मरीचि के कथनानुसार सब कार्य धर्म ने सम्पादित कर दिया, इसके लिये उन्होंने वरदान दिया । तदन्तर मरीचि अपनी नव विवाहिता धर्म पत्नी धर्मव्रता को अग्निहोत्रादि वैवाहिक धार्मिक विधियों का विधिवत् अनुष्ठान कर अपने आश्रम में ले गये और वहाँ उसके साथ इस प्रकार आनन्दोपभोग किया जिस प्रकार भगवान् विष्णु लक्ष्मी के साथ, शम्भु पार्वती के साथ तथा अजन्मा ब्रह्मा सरस्वती के साथ करते हैं । धर्मव्रता के संयोग से मरीचि के भगवान् विष्णु के समान परम तेजस्वी एवं प्रभावशाली सो पुत्र उत्पन्न हुए | एक बार कभी फलपुष्पादि लाने के लिये मुनिवर वन को गये थे और वहाँ से लौटकर बहुत थक गये थे, भोजनोपरान्त अपनी पतिव्रता पत्नी धर्मव्रता से उन्होंने कहा कि प्रिये ! में शय्या पर लेट गया हूँ, मेरा पैर दबा दो । धर्मव्रता ने आज्ञा अङ्गीकार कर शय्या पर लेटे हुए मुनिवर मरीचि का पाद संवाहन प्रारम्भ कर दिया । सर्वप्रथम घृत लगाकर वह सन्मयता पूर्वक पैर दबाने लगी, थोडी ही देर में जब मुनि को नीद लग गई, पितामह ब्रह्मा जी उस स्थान पर पधारे । १७-२२३१। समुपस्थित ब्रह्मा को देखकर साध्वी धर्मव्रता ने मन में प्रभुवयं की अर्चना करने का संकल्प किया, किन्तु उसके मन मे वितर्क हुआ कि ऐसी अवस्था मे जब कि पतिदेव बहुत ही थके हुये हैं, मुझे क्या उचित है, मैं पतिदेव का पाद संवाहन करतो रहूँ ?

  • इदमधं नास्ति क. पुस्तके | + इत आरभ्य मुनेरित्यन्तं नास्ति ख. पुस्तके | X नास्तीदमधं ख. पुस्तके |