पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०८

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सप्ताधिकशततमोऽध्यायः ॥२५ ॥२६ ।।२७ ॥२८ अर्ध्यपाद्यादिकं दत्त्वा ब्रह्माणं समपूजयत् । सत्कृतायां तु शय्यायां विश्राममकरोदजः एतस्मिन्नन्तरे भर्ता समुत्तस्थौ स्वतल्पतः । धर्मव्रतामपश्यन्स विप्रः क्रुद्धः शशाप ताम् पादसंवाहनं त्यक्त्वा यस्मादाज्ञां विहाय मे । गताऽन्यत्र ततः पापाच्छापदग्धा शिला भव भर्त्रा धर्मव्रता शप्ता मरीचि प्राह सा रुषा | शयाने त्वयि संप्राप्ते ब्रह्मा त्वज्जनको गुरुः त्वयोत्थाय हि कर्तव्यं स्वगुरोः पूजनं सदा । मया तु धर्मचारिण्या तव कार्ये कृते मुने अदोषाऽहं यतः शप्ता तस्माच्छापं ददामि ते । त्वं च शापं महादेवाद्भुर्तः प्राप्स्यस्यसंशयम् ÷व्याकुलं तं पतिं दृष्ट्वा व्याकुलाऽगात्प्रजापतिम् । नत्वा शयानं ब्रह्माणमग्नि प्रज्वाल्य चेन्धनः ॥ गार्हपत्ये स्थिता चक्ने तपः परमदुष्करम् । तथा शप्तो मरीचिश्च तपस्तेपे सुदारुणम् ॥२६ ॥३० ॥३२ १०८७ या जगत् पूज्य ब्रह्मदेव को पूजा सम्पन्न करूँ ? ऐसा विचार मन में उठते न उठते ही वह आकुल चित्त होकर उठ खड़ी हुई कि ब्रह्मा जगद्गुरु हैं, उनकी पूजा परमावश्यक है। वहीं उठकर उसने अर्ध्य पाद्यादि समर्पित कर ब्रह्मा की विविधत् पूजा की। विधिपूर्वक सत्कार किये जाने पर अज ब्रह्मा जी ( एक दूसरी ) शय्या पर विश्राम करने लगे |२३-२५ | दुर्भाग्यवश इसी बीच में पतिदेव की आँखे खुल गईं। वे अपनी शय्या पर से उठ बैठे, धर्मव्रता को देखा कि वह पैर नही दबा रही है। उसके इस व्यवहार से विप्र वर मरीचि को महान् क्रोध हुआ, और उन्होंने शाप दे दिया कि मेरी आज्ञा के विना पैर का दबाना छोड़- कर तू अन्यत्र चली गई अतः इस पाप कर्म के कारण मैं तुझे शाप दे रहा हूँ कि तू शिला हो जा ।२६-२७ पति के शाप देने पर धर्मव्रता को भी अमर्ष हुआ, उसने कहा, तुमको निद्रा लग गई थी, उसी समय तुम्हारे पूज्य पिताजी यहाँ पधारे |२६| तुमको सर्वदा अपने गुरु का उठकर पूजन वन्दनादि करना चाहिये | अतः मैंने धर्म विचार कर तुम्हारे ही कर्त्तव्य का पालन किया था | २६ | इसमें में बिल्कुल निर्दोष हूं, तुमने तो नाहक मुझे शाप दिया है, अतः मैं भी तुम्हें शाप दे रही हूँ कि तुम्हें महादेवजी शाप देंगे, इसमे कोई संशय की बात नही है । अपने पति को शाप के भय से व्याकुल देखकर धमंत्रता को और भी व्याकुलता हुई, वह प्रजा- पति ब्रह्मा के पास गई । उस समय संयोगतः ब्रह्माजी निद्रा ले रहे थे। उन्हे प्रणाम कर इन्धनो द्वारा अग्नि को प्रज्वलित किया और उसी गार्हपत्याग्नि मे स्थित होकर परम दारुण तप में लीन हो गई । उधर अभिशप्त मरीचि भी तपस्या मे दतचित्त होकर जुट गये |३०-३२। उस परम तपस्विनी धर्मव्रता एव मरीचि के परम कठोर ÷ एतच्छ्लोकस्थानेऽयं श्लोकः क. पुस्तके—तं व्याकुलं पतिं दृष्ट्वा व्याकुला सा पतिव्रता | पतिव्रतात्व- माहात्म्यात्पत्युः शापं दधार सा |