पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०६

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सप्ताधिकशततमोऽध्यायः 115 HIE ॥१० ॥११ ब्रह्मणो मानसः पुत्रो मरीचिर्नाम विश्रुतः । पर्यटन्पृथिवीं सर्वा कन्यारत्नं ददर्श सः रूपयौवनसंपन्ना परमे तपसि स्थिताम् । पप्रच्छाथ मरीचिस्तां का त्वं कस्यासि तद रूपेणानेन मां भोरु विसोहयसि सुव्रते । ब्रह्मात्मजोऽहं विख्यातो मरोचिर्वेदपरागः मरीचेर्वचनं श्रुत्वा कन्या प्रोवाच तं मुनिम् । अहं धर्मव्रता नाम धर्मपुत्री तपोन्विता पतिव्रतार्थं विप्रेन्द्र चरामि परमं तपः । धर्मव्रतां मरीचिस्तामुवाच प्रीतिपूर्वकम् पतिव्रता दर्शनान्से भविष्यसि शुभवते | पतिव्रतेक्षया पृथ्वीं विचरामि ह्यनिशम् त्वं चेत्पतिव्रता जाता भजे त्वां भज मां वरम् | लोके न त्वादृशी कन्या सम तुल्यो न ते वरः ॥१३ धर्मव्रते धर्मपत्नी तस्मात्त्वं भव मेऽधुना | धर्मव्रता सुनि प्राह धर्मं याचय सुव्रत तच्छ्रुत्वा धर्मगममुनि धर्मो ददर्श ह | तेजःपुञ्ज वरं नत्वा आसनार्ध्यादिनाऽर्चयत् किमर्थमागतः पृष्ठो मरीचिर्धर्ममब्रवीत् | फन्यार्थं भ्रमता पृथ्वीं दृष्टा ते कन्यका वरा ॥ मह्यं कन्यां च तां देहि श्रेयस्तव भविष्यति ॥१२ ॥१४ ॥१५ १०८५ ॥१६ रत्न का दर्शन किया। उन्होंने देखा कि वह परम रूपवती एवं पूर्ण यौवना होते हुए भी घोर तपस्या में लीन है। ऋषिवर मरीचि ने कन्या से जिज्ञासा प्रकट की कि हे कल्याणि ! तुम कौन हो ? किसको पुत्रो हो ? १६-८। सद्व्रतपरायणे ! तुम अपनी मोहक रूपराशि से हमारे चित्त को मुग्ध कर रही हो । भीरू ! तुम डरो मत । ब्रह्मा का पुत्र हूँ, समस्त वेदों का सम्यक् अध्ययन एवं परिशीलन कर चुका हूँ, सारे संसार में लोग मुझे मरीचि नाम से जानते है | मरीचि के वचन को सुनकर कन्या ने कहा, मुनिवर ! मैं धर्म की पुत्री हूँ, मेरा नाम धर्मव्रता है । अनुरूप पति एवं पतिव्रतधर्म की प्राप्ति के लिये मैं यह कठोर तपस्या कर रही हूँ । घमंत्रता की बातें सुनकर मुनिवर मरीचि ने प्रेम पूर्वक कहा, शुभवते ! मेरे दर्शन मात्र से तुम पतिव्रता हो । ओगी । केवल पतिव्रता नारियों के देखने को इच्छा ही से मैं रात दिन पृथ्वी का पर्यटन करता हूँ |६-१२ | यदि तुम पवित्रता हो तो मुझे पतिरूप में अङ्गीकार करो, मैं तुम्हें पत्नीरूप में स्वीकार करता हूँ । इस लोक में न तो तुम्हारे समान कोई कन्या है और न मेरे समान कोई वर है धर्मव्रते ! अब तुम हमारी धर्मपत्नी हो जाओ । मुनिवर मरीचि को वाते सुनकर घर्मव्रता ने कहा, सुन्नत ! आप इस विषय में हमारे पिता से याचना करे । धर्मव्रता के कथनानुसार मरीचि धर्म के पास गये । धर्म ने परम तेजस्वी मरीचि मुनि को देखकर आसन एवं अर्ध्यादि समर्पित कर मरीचि की पूजा की और पूछा कि मुनिवर्य ! आपका शुभागमन किस प्रयोजन द्वारा यहाँ हुआ ? मरीचि बोले, महानुभाव ! योग्य पत्नी के अन्वेषण के लिये समस्त भूमण्डल विचरण को कामना से मैं घूम रहा था कि तुम्हारी परम सुन्दरी एवं धर्मशील कन्या धर्मव्रता दृष्टिगत हुई, तुम अपनी