पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०५

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१०८४ वायुपुराणम् अथ सप्ताधिकशततमोऽध्यायः 7 गयामाहात्म्यम् नारद उवाच कथं शिला समुत्पन्ना यथाऽऽक्रान्तो गयासुरः । किं रूपं किं च माहात्म्यं तस्या किं वद नाम च ॥१ सनत्कुमार उवाच आसीद्धर्मो महातेजाः सर्वविज्ञानपारगः | विश्वरूपा च तत्पत्नी भर्तृव्रतपरायणा तस्यां धर्मात्समुत्पन्ना कन्या धर्मव्रता सती । रूपयौवनसंपन्ना लक्ष्मीरिव गुणाधिका तस्यां ये तु गुणा ह्यासंस्ते तिष्ठन्ति जगत्त्रये । धर्मो धर्मव्रतायास्तु त्रिषु लोकेषु मार्गयन् नानुरूपं वरं लेमे धर्मोऽथ वरसिद्धये । तपः कुरु वरार्थं त्वं तथेत्युक्त्वा वनं ययौ कन्या सा च तपस्तेपे सर्वेषां दुष्करं च यत् । वायुभक्षा श्वेतकल्पे युगानामयुतं पुरा ॥२ ॥३ ॥४ - ॥६ अध्याय १०७ नारद वोले- ब्रह्मन् ! वह प्रसिद्ध शिला किस प्रकार उत्पन्न हुई जिससे गयासुर का शरीर दबाया गया था । उसका स्वरूप एवं माहात्म्य क्या है ? उसका नाम क्या है ? बतलाइये |१| सनत्कुमार बोले- प्राचीनकाल में महान् तेजस्वी, समस्त विज्ञान विज्ञानतत्त्व वेत्ता धर्म नामक महानुभाव हुए । उनको पतिव्रत परायण विश्वरूपा नामक पत्नी थी । उस पत्नी मे धर्म के संयोग से धर्मव्रता नामक एक सती कन्या उत्पन्न हुई जो स्वरूप एवं यौवन से सम्पन्न एवं लक्ष्मी के समान परम गुणवती थी । उसमे जितने गुण उपलब्ध थे वे तीनो जगत् के प्राणियों में उपलब्ध थे । धर्मव्रता के लिये धर्म ने तीनों लोको में अनुरूप वर ढूंढा किन्तु कही भी कोई उपयुक्त पात्र नही दिखाई पड़ा | तम धर्म ने वरदान से सिद्धि प्राप्त करने के लिए पुत्री से कहा- वेटी, अनुरूप पति प्राप्ति के लिए तपस्या करो | कन्या ने पिता की आज्ञा स्वीकार कर वन को गमन किया और वहां जाकर परम कठोर तपस्या प्रारम्भ किया |२५| श्वेतकल्प में धर्मंत्रता ने उक्त तपस्या के सङ्ग में दस सहस्र युगों तक केवल वायु का आहार किया । ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि प्रम विख्यात ऋषि थे | वे पृथ्वी का पर्यटन करते हुए वहाँ आये और उक्त कन्या- 1