पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०१

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१०८० वायुपुराणम् ॥५४ अनीय मूर्ति ब्रह्माऽपि शिलायां समधारयत् । तथाऽपि चलितं वीक्ष्य पुनर्देवमथाऽऽहृयत् आगत्य विष्णुः क्षीराब्धेः शिलायां संस्थितोऽभवत् । जनार्दनाभिधानेन पुण्डरीकेतिनामतः ॥ शिलायां निश्चलार्थं हि· स्वयमादिगदाधरः निश्चयार्थं पञ्चधाssसोच्छिलायां प्रपितामहः | पितामहोऽथ फल्ग्वीशः केदारः कनकेश्वरः ब्रह्मा स्थितः स्वयं तत्र गजरूपी विनायकः । गयादित्यवोत्तर दक्षिणार्कस्त्रिधा रविः लक्ष्मी: सीताभिधानेन गौरी च मङ्गलाह्वया । गायत्री चैव सावित्री त्रिसंध्या च सरस्वती इन्द्रो वृहस्पतिः पूषा वसवोऽष्टौ महाबलाः । विश्वे देवाश्चाऽऽश्विनेयौ [*मारुतो विश्वनायकः ॥ सयक्षोरगगन्धर्वास्तस्थुर्देवाः स्वशक्तिभिः आद्यया गदया चासौ ! यस्माद्दैत्यः स्थिरीकृतः | स्थित इत्येव हरिणा तस्मादादिगदाधरः ऊचे गयासुरो देवान्किमर्थं वश्वितो ह्यहम् | यज्ञार्थं ब्रह्मणे दत्तं शरीरमलयं मया ॥ विष्णोर्वचनमात्रेण किं न स्यां निश्चलो ह्यहम् ।।५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ५६ ॥६० ॥६१ सुनकर भगवान् हरि ने अपने शरीर से खींचकर एक मूर्ति ब्रह्मा को गयासुर के शरीर को निश्चल करने के लिए दिया । ब्रह्मा ने उक्त मूर्ति को लाकर गयासुर के मस्तक पर स्थापित शिला के ऊपर स्थापित किया | किन्तु उस पर भी जब शिला को चलायमान देखा तो पुनः हरि का आवाहन किया । ब्रह्मा आवाहन करने पर भगवान् क्षीरसागर से आकर शिला के ऊपर स्वयमेव अवस्थित हुए ॥५१ ५५३ स्वयम् भगवान् जनान पुण्डरीकाक्ष ने गदा धारण कर उक्त शिला को निश्चल करने के लिए उस पर अपना अवस्थान किया | उसी शिला को अधिकाधिक निश्चल करने के लिये प्रपितामह ने अपने को पाँच भागो विभक्त कर अवस्थान किया । वे पाँचो वहाँ प्रपितामह, पितामह फल्ग्वीश, केदार और कनकेश्वर के नाम से विख्यात थे | उसी शिलापर गज रूपधारी विनायक भी स्थित हुए। सूर्य गयादित्य, उत्तरार्क और दक्षिणार्क इन तीन नामों से अवस्थित हुए । लक्ष्मी सीता के नाम से तथा गोरी मङ्गला के नाम से उस शिलाखण्ड पर अवस्थित हुई । सरस्वती गायत्री, सावित्री और त्रिसन्ध्या इन तीनो स्वरूपों में स्थित हुईं | इनके अतिरिक्त इन्द्र, वृहस्पति पूषा महावलशाली आठों वसुगण, विश्वेदेवगण, दोनों अश्विनी कुमार विश्व नामक मारुत यज्ञ गन्धर्व, उरगा- दिकों के साथ अपनी अपनी शक्तियो समेत उस शिलाखण्ड पर विराजमान हुए १२६ - ५९१ यतः भगवान् हरि की आदि गदा से वह असुरराज गय स्थिर किया गया था, अतः भगवान् आदि गदाधर के नाम से विख्यात हुए । उक्त अवसर पर गयासुर ने उपस्थित देवगणो से कहा, सुरवृन्द ! आप लोगों ने किस कारण हमें वंचित ने

  • धनुषिचह्नान्तर्गतग्रन्थः खः पुस्तके नास्ति |