पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११००

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+ षडधिकशततमोऽध्यायः १०७६ देवानूचेऽथ रुद्रादीशलायां निश्चलाः किल । तिष्ठन्तु देवाः सकलास्तथेत्युक्त्वा च ते स्थिताः ॥४७ देवाः पादैर्लक्षयित्वा तथाऽपि कलितोऽसुरः । ब्रह्माऽथ व्याकुलो विष्णुं गतः क्षीराब्धिशायिनम् ॥ तुष्टाव प्रणतो भूत्वा नत्वा चाऽऽदृत्य तं प्रभुम् ॥४८ ब्रह्मोवाच ब्रह्माण्डस्य पते नाथ नमामि जगतां पतिम् । गति कीर्तिमतां नृणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥४६ 'विष्वक्सेनोऽब्रवीविष्णुं देव त्वां स्तौति पद्मजः | हरिराहाऽऽनय स्वं तं विष्णूक्तः स तमानयत् ॥ अजमूचे हरिः कस्मादागतोऽसि वदस्व तत् ॥५० ब्रह्मोवाच देवदेव कृते यागे प्रचचाल गयासुरः । शिलायां देवरूपिण्यां न्यस्तायां तस्य मस्तके स्वादिषु च देवेषु संस्थितेष्वसुरोऽचलत् । इदानीं निश्चलार्थ हि प्रसादं कुरु माधव ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा ह्याकृष्य स्वशरीरतः । मूतिं ददौ निश्चलार्थं ब्रह्मणे भगवान्हरिः ॥५१ ॥५२ ॥५३ कहा कि आप लोग इस शिला को निश्चल करने के लिये इस पर अवस्थित हो जायँ । देवगण ने 'बहुत अच्छा' कहकर उसी शिला पर अवस्थित हो गये । देवताओं के पैरों से आक्रान्त होने पर भी वह महा असुर चंचल हो बना रहा | तब व्याकुल होकर ब्रह्मा क्षीरसागरशायो भगवान् विष्णु के पास गये और वहीं विनम्रभाव से आदर पूर्वक प्रभु की इस प्रकार प्रार्थना की ।४१-४६। ब्रह्मा बोले- हे निखिल ब्रह्माण्ड के स्वामिन् ! जगदीश्वर आप को हमारा नमस्कार है, आप मनुष्यों को यश देने वाले, उनको भुक्ति एवं मुक्ति के प्रदाता आप ही है । ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर विष्वक्सेन ने भगवान् विष्णु के समीप जाकर कहा, देव ! पद्म सम्भव भगवान् ब्रह्मा आप की स्तुति कर रहे हैं । हरि ने कहा जाओ, उन्हें लिवा लाओ । भगवान् विष्णु के आदेशानुसार विष्कसेन ने ब्रह्मा को भगवान् के सम्मुख उपस्थित किया । हरि ने अजन्मा ब्रह्मा से कहा, देव किस कारण वश आपका यहाँ पदार्पण हुआ है, बतलाइये |४६-५० ने ब्रह्मा ने कहा - भगवन् ! आप के निर्देशानुसार यज्ञ सम्पन्न तो हो गया पर गयासुर अभी तक चञ्चल बना हुआ है | हम सबो ने उसके मस्तक पर यद्यपि देवरूपिणी शिला लाकर रखी है, फिर भी वह चलायमान है। यही नहीं रुद्र प्रभृति देवगणो के पैरों से आक्रान्त होने पर भी वह महान् असुर निश्चल नही हुआ | माधव ! अब वह जिस प्रकार निश्चन हो, आप उसके लिये कृपा करें । ब्रह्मा की आर्त वाणी