पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०९९

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१०७८ वायुपुराणम् गर्ग कौशिकवासिष्ठौ मुनि भार्गवमव्ययम् । वृद्धं पाराशरं कण्वं माण्डव्यं श्रुतिकेवलम् श्वेतं सुमालं दमनं सुहोत्रं कङ्कमेव च । लौकाक्षि च महाबाहुं जैगीषव्यं तयैव च दधिपश्वसुखं विप्रमृषभं फर्कमेव च । कात्यायनं गोभिलं च भुनिमुग्रमहाव्रतम्

  • सुपालकं गौतमं च तथा वेदशिरोव्रतम् | जटामालिनमव्यग्रं चाटुहासं च दारुणम्

+ आत्रेयं चाप्यङ्गिरसमौपमन्युं महाव्रतम् । गोकर्णं च गुहावासं शिखण्डिनमुमाव्रतम् एतानन्यांश्च विप्रेन्द्रान्वेधा लोकपितामहः | परिकल्प्याकरोद्यागं गयासुरशरीरके अग्निशर्माऽपि पञ्चाग्नोन्मुखादेतानथासृजत् । दक्षिणाग्नि गार्हपत्याहवनीयौ तपोव्ययः सभ्यावसथ्यौ देवर्षे तेषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः । यज्ञस्य च प्रतिष्ठार्थं विप्रेभ्यो दक्षिणां ददौ हुत्वा पूर्णाहुति ब्रह्मा स्नात्वा चावभृथेन तु | यज्ञयूपं सूरैः सार्धं समानीय व्यरोपयत् ब्रह्मणः सरसः श्रेष्ठे सरस्येवाश्रितं शुभम् | चलितश्चकितो ब्रह्मा धर्मराजमभाषत जाता गृहे तव शिला समानीयाविचारयन् । दैत्यस्य शीघ्र शिरसि तां धारय ममाऽऽज्ञया निश्चलार्थं यमः श्रुत्वाऽधारयन्मस्तके शिलाम् | शिलायां धारितायां तु सशिलश्र्वासुरोऽचलत् ॥४६ ॥४५ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ सुहोत्र, कङ्क, लौकाक्षि, महावाहु जंगीषव्य, दधिपञ्चमुख, विप्रवर ऋषभ, कर्क कात्यायन, गोभिल, महाव्रतशाली मुनिवर उग्र, सुपालक, गौतम, वेदशिरोव्रत अव्यग्रचित्त जयमाली चाटुहास, दारुण, आत्रेय, अङ्गिरस, औषमभ्यु महाव्रतशील गोकर्ण, गृहावास, शिरवण्डी, उमाव्रत -- इन सब मुनियों के अतिरिक्त अन्यान्य बहुतेरे विनों की लोक पितामह ब्रह्मा जो ने सृष्टि को और गयासुर के शरीर पर यज्ञ का कार्य प्रारम्भ किया ३४-४०३ इन उपर्युक्त पुरोहित ऋपियों में से अग्निशर्मा ने अपने मुख से दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, आवहनीय, सभ्य एवं अवसम्य नामक पाँच अग्नियों का निर्माण किया । हे देवपि ! इन्हीं पांचों अग्नियों में यज्ञों को प्रतिष्ठा हुई । यज्ञ की सम्यक् प्रतिष्ठापना के लिये ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दो गई | यज्ञ के अन्त में भगवान् ब्रह्मा ने पूर्णा- हुति दान के उपरान्त अवभृथ स्नान किया - और समस्त देवताओं के साथ यज्ञस्तम्भ को आरोपित किया । उस मंगलमय स्तम्भ को ब्रह्मा के उत्तम सरोवर में निमज्जित कर उसो में प्रतिष्ठित भो किया | यज्ञभूमि के चलायमान होने पर ब्रह्मा जी चकित होकर धर्मराज से बोले, यमराज तुम्हारे घर एक शिला है, उसे बिना किसी वितर्क के यहाँ लाओ और दैत्य के शिर पर शीघ्र स्थापित करो - ऐसी मेरी आज्ञा है। असुरराज गय के शरीर को निश्चल करने को अत्यावश्यक समझ कर यमराज ने शिला लाकर उसके मस्तक पर रखा, किन्तु उस शिला के रखने पर भी असुरराज शिला समेत विचलित हो गया । तब ब्रह्मा ने रुद्रादि देवताओं से

  • इदमधं नास्ति ख. पुस्तके | + अयं श्लोको न विद्यते ख पुस्तके |