पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०२

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षडधिकशततमोऽध्यायः यत्सुरैः पीडितोऽत्यर्थ गदया हरिणा तथा । पीडितो यद्यहं देवाः प्रसन्नाः सन्तु सर्वदा गदाधरादयस्तुष्टाः प्रोचुः सार्धं गयासुरम् | वरं ब्रूहि प्रसन्नाः स्थो देवानूचे गयासुरः यावत्पृथ्वी पर्वताश्च यावच्चन्द्रार्कतारकाः । तावच्छिलायां तिष्ठन्तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ अन्ये च सकला देवा मन्नास्ना क्षेत्रमस्तु वै पञ्चक्रोशं गयाक्षेत्रं क्रोशमेकं गयाशिरः | तन्मध्ये सर्वतीर्थानि प्रयच्छन्ति हितं नृणाम् स्नानादितर्पणं कृत्वा पिण्डदानात्फलाधिकम् महात्मानि सहस्रं च कुलानां चोद्धरेन्नरः व्यक्ताव्यक्तस्वरूपेण येयं तिष्ठत सर्वदा | गदाधरः स्वयं लोकायात्सर्वाघनाशनात् श्राद्धं सपिण्डकं येषां ब्रह्मलोकं प्रयान्तु ते । ब्रह्महत्यादिकं पापं विनश्यतु च सेविनाम् नैमिषं पुष्करं गङ्गा प्रयागश्चाविमुक्तिकम् । एतान्यन्यानि तीर्थानि दिवि भुव्यन्तरिक्षतः ॥ समायान्तु सदा नृणां प्रयच्छन्तु हितं सुराः १०८१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ● किया मैंने यज्ञ के लिये अपने शरीर को ब्रह्मा को समर्पित किया था । क्या मै भगवान् विष्णु के वचन मात्र से निश्चल न हो जाता ? देवताओं तथा भगवान् विष्णु को गदा द्वारा मैं पीडित हो चुका हूं। आप देवगण सर्वदा प्रसन्न रहें ।६०-६२। समस्त देवताओ के साथ गदाधारियो महान् देवताओं को गयासुर की इन बातों से बड़ी प्रसन्नता हुई, वे बोले, गयासुर ! हम लोग तुमसे बहुत प्रसन्न है, जो वरदान चाहो, मांग लो । गयासुर ने देवताओं से कहा – देवगण ! जब तक पृथ्वी का अस्तित्व है, जब तक पर्वतगण, चन्द्रमा, ताराएँ विद्यमान रहें तब तक इस शिला पर ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर का निवास बना रहे अन्यान्य समस्त देवगण भी बने रहें, इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा मेरे नाम से हो । गयाक्षेत्र की मर्यादा पाँच कोस को तथा गया शिर की मर्यादा एक कोस की है। इन दोनों के मध्य भाग में मानव हितकारी समस्त तीर्थों का निवास हो - ऐसा आप लोग वरदान करें। इस बीच में स्नानादिकर तर्पण एवं पिण्डदान से महान् फल की प्राप्ति हो इस महान् प्रभावशाली क्षेत्र में पिण्डदानादि सम्पन्न करनेवाला मनुष्य अपने सहस्रो कुलों का उद्धार करे |६३-६६। आप लोग व्यक्त एवं अव्यक्त शरीर धारण कर इस शिला पर सर्वदा विद्यमान् रहे । भगवान् गदाघर यहाँ स्थित रहकर समस्त लोक के पाप पुज्जों का विनाश करे। जो लोग यहाँ सपिण्ड श्राद्ध दान करे वे ब्रह्मलोक को प्राप्त करें । इस पवित्र क्षेत्र के सेवन करनेवालों के ब्रह्महत्या आदि घोर पाप विनष्ट हो जायँ । नैमिष पुष्कर गङ्गा, प्रयाग, अविमुक्त प्रभृति जितने उत्तमोत्तम तीर्थ है, तथा उनके अतिरिक्त जो अन्यान्य तीर्थ स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं भूमण्डल में है, वे सभी हमारे इस पवित्र तीर्थ में आकर मानव मात्र का कल्याण सम्पादित करें -- ऐसा वरदान आप लोग हमें दीजिए | देवगण ! बहुत अधिक मैं क्या कहूँ | आप लोगों में से यदि एक फ़ा०-१३६