पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०९४

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षडधिकशततमोऽध्यायः गयायां पिण्डदानेन यत्फलं लभते नरः । न तच्छवयं मया वक्तुं कल्पकोटिशतैरपि इति महापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नाम पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५।। अथ षडधिकशततमोऽध्यायः गयामाहात्म्यम् नारद उवाच गयासुरः कथं जातः किप्रभावः किमात्मकः | तपस्तप्तं कथं तेन कथं देहपवित्रता सनत्कुमार उवाच विष्णोर्नाभ्यम्बुजाज्जातो ब्रह्मा लोकपितामहः । प्रजाः ससर्ज संप्रोक्तः पूर्वं देवेन विष्णुना {. १०७३ Y ॥४६ में पिण्डदान करने से जो फल प्राप्त करता है, उसका में सैकड़ों कोटि कल्पों में भी वर्णन नही कर सकता ९४५-४६ श्री वायुमहापुराण में गयामाहात्म्य नामक एक सो पाँचव अध्याय समाप्त ||१०५॥ सनत्कुमार बाले- नारदजी ! भगवान् विष्णु के नाभिकमल से हुए थे और पूर्वकाल में भगवान् विष्णु के कहने पर उन्होंने प्रजाओ की सृष्टि फा० - १३५ ॥१ अध्याय १०६ गया माहात्म्य नारद बोले- ब्रह्मन् ! वह गयासुर किस प्रकार उत्पन्न हुआ ? उसका प्रभाव और स्वरूप क्या था ? उसने किस प्रकार तपस्या को ? शारीरिक पवित्रता उसे कैसे प्राप्त हुई |१| ॥२ लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न की थी । भासुरभाव से उन्होंने