पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०९३

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१०७२ वायुपुराणम् तीर्थेषु ये नरा धीराः कर्म कुर्वन्ति तद्गताः । यथा ब्रह्मविदो वेद्यं वस्तु चानन्यचेतसः ॥ प्रविशन्ति परेशाख्यं ब्रह्म ब्रह्मपरायणाः ॥४३ [+ याऽऽस्ते वैतरणी नाम नदी त्रैलोक्यविश्रुता (साडवतीर्णा गयाक्षेत्रे पितॄणां तारणाय वै ॥ त्रातो गोदो वैतरण्यां त्रिःसप्तकुलमुद्धरेत् ॥४४ तथाsक्षयवटं गत्वा विप्रान्संतोषयिष्यति । ब्रह्माप्रकल्पितान्विप्रान्हव्यकव्यादिनाऽर्चयेत् ॥ तैस्तुष्टैस्तोषिताः सर्वाः पितृभिः सह देवताः X गयायां न हि तत्स्थानं यत्र तीर्थं न विद्यते । सांनिध्यं सर्वतीर्थानां गयातीर्थं ततो वरम् मीने मेषे स्थिते सूर्ये कन्यायां कार्मुके घटे | = गयायां दुर्लभं लोके वदन्ति ऋषयः सदा ॥ दुर्लमं त्रिषु लोकेषु गयायां पिण्डपातनम् मकरे वर्तमाने च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः | दुर्लभं त्रिषु लोकेषु गयाथाद्धं सुदुर्लभम् + धनुश्चिहृन्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति | = इदमधं नास्ति क्र. पुस्तके | ॥४५ ॥४६ चाहिये - जो इन सव नियमों का पालन करता है, वह तीर्थ का वास्तविक फल प्राप्त करता है। घीर पुरुष को तीर्थों को यात्रा करते समय सर्वप्रथम पापण्ड को त्याग देना चाहिये । जो कामनाओं को उत्तेजित करता है, वह पापण्ड है, जो घोर पुरुष तीर्थों में जाकर पितरों में भक्ति एवं निष्ठा रखकर ब्रह्मवेत्ताओं को भौति अनभ्यचित्त हो सब कर्म करते हैं, वे ब्रह्मपरायण परेश ग्रह्मपद में प्रविष्ट होते हैं, मैलोक्म विख्यात जो वैतरणी नामक नदी है, वह भी पितरों को तारने के लिये गया क्षेत्र मे नवतीर्ण हुई है उस वैतरणी में स्नानकर गोदान करनेवाला अपने इक्कीस कुलों को तारता है |४१-४४॥ अक्षयवट के पास जाकर जो ब्रह्मपरायण ब्राह्म को हव्य कव्यादि वस्तुओं से पूजित करता है, वह महान् पुण्य प्राप्त करता है, क्योकि उनके सन्तुष्ट हो जाने पर समस्त पितरगण एवं देवगण सन्तुष्ट हो जाते हैं। उस पवित्र गया तीर्थ में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ पर कोई न कोई तीर्थ विद्यमान न हो। वहीं सभी तीर्थों का सान्निध्य रहता है, गया तोर्थ उन सबसे बढ़- कर पुण्य है । मीन मेष, कन्या, धनु, एवं वृष राशि पर जब सूर्य हों उस समय गया तीर्थ परम दुर्लभ है, ऋषिलोग सर्वदा यह कहते आये है कि तीनों लोको में गया का पिण्डदान परम दुर्लभ है। मकरराशि पर जब चन्द्रमा और सूर्य स्थित हों, उस समय सोनों लोकों मे गयाश्राद्ध परम दुर्लभ माना गया है। मनुष्य गया X इतः प्रभृति सुटुलंभमित्यन्तं ग्रन्थव्यत्यासः ख. पुस्तके वर्तते । ।।४७ ॥४८