पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०९२

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पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः १०७१ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ पदे पदेऽश्वमेधस्य यत्फलं गच्छतो गयाम् । तत्फलं च भवेन्नूनं समग्र नात्र संशयः पायसेनापि चरुणा सक्तु ना पिष्टकेन वा | तण्डुलैः फलमूलाद्यैर्गयायां पिण्डपातनम् तिलकल्केन खण्डेन गुडेन सघृतेन वा | केवलेनैव दध्ना वा ऊर्जेन मधुनाऽथ वा पिण्याकं सघृतं खण्डं पितृभ्योऽक्षयमित्युत | इज्यते वाऽऽर्तवं भोज्यं हविष्यान्नं मुनोरितम् एकतः सर्ववस्तूनि रसवन्ति मधूनि हि | स्मृत्वा गदाधराङ्प्रधब्जं फल्गुतीर्थाम्बु चैकतः

  • पिण्डासनं पिण्डदानं पुनः प्रत्यवनेजनम् । दक्षिणा चान्नसंकल्पस्तीर्थश्राद्धेष्वयं विधिः

नाऽऽवाहनं न दिग्बन्धो न दोषो दृष्टिसंभवः । सकारुण्येन कर्तव्यं तीर्थश्राद्धं विक्षचणैः अन्यत्राऽऽवाहिताः काले पितरो यान्त्यमुं प्रति । तीर्थे सदा वसन्त्येव तस्मादावाहनं न हि तीर्थश्राद्धं प्रयच्छद्भिः पुरुषैः फलकाङ्क्षिभिः | कामं क्रोधं तथा लोभं त्यक्त्वा कार्या क्रियाऽनिशम् ॥ ब्रह्मचार्येकभोजी च भूशायी सत्यवाक्शुचिः । सर्वभूतहिते रक्तः स तीर्थफलमश्नुते ॥ ४१ तीर्थान्यनुसरन्धीर: पाषण्डं पूर्वतस्त्यजेत् ) । पाषण्डः स च विज्ञेयो यो भवेत्कामकारकः ॥४२ ॥३७ ॥३८ ॥३६ एक पग पर प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नही । दुग्ध मिश्रित चरु, सत्तू, पेठा, चावल, विविध प्रकार के फल एवं मूल इन वस्तुओं से गया मे पिण्डदान किया जाता है। तिलकल्क, घृतसमेत गुड़खण्ड अथवा केवल दही यह उत्तम मधु या घृतसमेत पिण्याक द्वारा मया मे श्राद्ध करने से पितरो को अक्षय तृप्ति मिलती है । अथवा जिस ऋतु मे श्राद्ध हो रहा हो उस ऋतु मे होने वाले भोज्य पदार्थ, मुनियों द्वारा उद्दिष्ट हविष्यान्न, एवं रसयुक्तसुमधुर वस्तुओं को एक ओर रखकर भगवान् बदाघर के चरणाविन्द एवं फल्गु के पवित्र जल का स्मरणकर पितरो के उद्देश से दान करना चाहिये । पिण्ड के लिये आसन, पिण्डदान, प्रत्यवनेजन, दक्षिणा, और अन्न सङ्कल्प–तीथंश्राद्धों की यही विधि है | ३२-३७॥ तीर्थो मे आवाहन, दिशाओं में परदा टाँगना, अथवा दृष्टिजन्य दोष, ये सव तीर्थ श्राद्धों मे नही होते । बुद्धिमानों को करुणा पूर्वक तीर्थश्राद्धो को सम्पन्न करना चाहिये । पितरगण अन्य स्थानो मे आवाहन करने पर जाते है, किन्तु यहाँ नही, क्योंकि वे तीर्थों मे तो सर्वदा निवास ही करते हैं, यही कारण है कि तीर्थों में उन्हें आवाहित नहीं किया जाता । फल की माकांक्षा से तीर्थों मे श्राद्ध प्रदान करनेवाले पुरुषों को काम, कोष तथा लोभ को छोड़कर सारी क्रियाएँ करनी चाहिये |३८-४०॥ ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर एक समय भोजन करना चाहिये, पृथ्वी पर शयन करना चाहिये, सत्य वचन बोलना, मन एवं शरीर से पवित्र रहना चाहिये। सभी जीवों के कल्याण साधन में निरन रहना "

  • इत आरम्य विचक्षणरित्यन्तं ग्रन्थव्यत्यासः ख. पुस्तके |