पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८८

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पश्चाधिकशततमोऽध्यायः सूत उवाच सनकाद्यैर्महाभागैर्देवषिः स च नारदः । सनत्कुमारं पप्रच्छ प्रणम्य विधिपूर्वकस् नारद उवाच सनत्कुमार मे ब्रूहि तीर्थं तीर्थोत्तमोत्तमम् | तारकं सर्वभूतानां पठतां [ x शृण्वतां तथा सनत्कुमार उवाच वक्ष्ये तीर्थवरं पुण्यं श्रद्धादौ सर्वतावकम् (?) गयातीर्थं सर्वदेशे तीर्थेभ्योऽप्यधिकं शृणु ] गयासुरस्तपस्तेपे ब्रह्मणा कृतवेऽथितः । प्राप्तस्य तस्य शिरसि शिलां धर्मो ह्यधारयत् तत्र ब्रह्माऽकरोद्यागं स्थितश्चापि गदाधरः | फल्गुतीर्थादिरूपेण निश्चलार्थमनिशम् ॥ गयासुरस्य विप्रेन्द्र ब्रह्माद्यैर्देवतैः सह १०६७ ÷ इत उत्तरं मुद्रितपुस्तकेऽयं ग्रन्थ उपलभ्यते सोऽयम् - गयायात्रां प्रवक्ष्यामि शणु नारद मुक्तिदाम् । निष्कृतिस्विह कतणां ब्रह्मणा गीयते पुरा ॥१ ब्रह्मज्ञानं गया श्राद्धं गोगृहे मरणं तथा । वासः पुंसां कुरुक्षेत्रे मुक्तिरेषा चतुविधा ||२ ॥२ सूत वोले- ऋषिवृन्द ! एक बार महाभाग्यशाली सनक प्रभृति देवर्षियों के साथ नारद जो ने सनत्कुमार को विधिवत् प्रणाम कर निवेदन किया ॥२॥ ब्रह्मज्ञानेन कि कार्य गोगृहे मरणेन किम् । कि कुरुक्षेत्रवासेन यदि पुत्रो गयां व्रजेत् ॥३ गयायां पिण्डदानेन यत्फलं लभते नरः । न तच्छत्रयं मया वक्युं कल्पकोटिशतैरपि ॥४ ॥३ नारद ने कहा - सनत्कुमार जी ! समस्त उत्तम तीर्थों में भी उत्तम किसी ऐसे तीर्थ का माहात्म्य हमें वतालाइये, जिसके पढ़ने एवं सुनने वाले सभी प्राणी तर जाते हैं | ३ | इति श्रुत्वा तदा वाक्यं नारदो मुनिसत्तमः । सनत्कुमारं प्रपच्छ प्रणम्य विधिपूर्वकम् ||५|| इति । X धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति । ॥४ ॥५ सनत्कुमार बोले- - नारद जी ! आप के अनुरोध पर तीर्थंवर गया का माहात्म्य हम बतला रहे हैं, जो श्राद्धादि पंतृक कार्यों में समस्त प्राणियों को तारने वाला है, वह गया तीर्थ सभी देशों में, सभी तीर्थों से अधिक पुण्यप्रद है, उसका माहात्म्य सुनिये | एक बार यज्ञ के लिए ब्रह्मा के अनुरोध करने पर गयासुर ने यहाँ तपस्या की थी, उसके शिर पर एक शिला की स्थापना कर भगवान् ब्रह्मा ने यज्ञ सम्पन्न किया था। वह पवित्र यज्ञ ब्रह्मा जी ने इसी तीर्थं में किया था, विप्रवर्य ! वह असुर किसी प्रकार विचलित न हो जाय - इस उद्देश्य से ब्रह्मादि देवताओं के साथ भगवान् गदाघर भी फल्गु आदि तीर्थों के रूप में रात दिन वही स्थित रहते हैं ॥४-६॥