पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८९

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१०६८ वायुपुराणम्. कृतयज्ञो ददौ ब्रह्मा ब्राह्मणेभ्यो गृहादिकम् । श्वेतफल्पे तु वाराहे गयो यागमकारयत् गयानाम्ना गया ख्याता क्षेत्रं ब्रह्माभिकाङ्क्षितम् । काङ्ङ्क्षन्ति पितरः पुत्रान्नरकाद्भयभीरवः गयां यास्यति यः पुत्रः स नस्त्राता भविष्यति । गयाप्राप्तं सुतं दृष्ट्वा पितॄणामुत्सयो भवेत् ॥ पद्भ्यामपि जलं स्पृष्ट्वा सोऽस्मभ्यं कि न दास्यति

  • एण्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् । यजेत चाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत्

गयां गत्वाऽन्नदाता यः पितरस्तेन पुत्रिणः | पक्षत्रयनिवासी च पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ + नो चेत्पञ्चदशाहं वा सप्तरात्रि त्रिरात्रिकम् 1119 lis ॥६ ॥१० ॥११ ॥१२ महाकल्पकृतं पापं गयां प्राप्य विनश्यति । पिण्डं दद्याच्च पित्रादेरात्मनोऽपि तिलविना x ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः | पापं तत्सङ्गजं सर्वं गयाश्राद्धाविनश्यति आत्मजोऽप्यन्यजो वाऽपि गयाभूमौ यदा तदा । यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं तन्नयेद्रब्रह्म शाश्वतम् ॥१४ ॥१३ निर्विघ्न यज्ञ की समाप्ति हो जाने के उपरान्त ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को दक्षिणा में गृहादि प्रदान किये । श्वेत वाराह कल्प में उसी पवित्र स्थान पर गयासुर ने यज्ञाराधन किया। तभी से यह परम पुनीत क्षेत्र गया के नाम से ख्यात हुआ, इसे ब्रह्मा जी बहुत पसन्द करते हैं। यही नहीं, नरक के भय से डरे हुये पितरगण भी इस परम पुनीत क्षेत्र की बड़ी कामना करते है । वे कहते हैं कि जो पुत्र गया यात्रा फरेगा वह हम सब को इस दुःख संसार से तार देगा | इस पुनीत गया तीर्थ में पुत्र को गया हुआ देखकर पितरों के घर उत्सव मनाये जाते हैं । वे कहते हैं कि इस पुनीत तीर्थं मे अपने पैरों से भी जल का स्पर्श कर पुत्रगण हमें क्या नहीं दे देंगे ? १७-६। एक पुत्र भो गया चला जायगा या अश्वमेध यज्ञ करेगा अथवा नील वृषभ का उत्मगं करेगा (तो हम सब का उद्धार हो जायगा, इसीलिए ) पितरगण इन्हीं उद्देश्यों से बहुत पुत्रों के होने की कामना करते है। इस गया तीर्थ में जाकर जो पुत्र अन का दान करता है, पितरगण उसी सुपुत्र से अपने को पुत्रवान् मानते है । यहाँ पर तीन पक्ष तक निवास करने वाला पुत्र अपने सात पूर्व पुरुषों का उद्धार करता है । यदि तीन पक्ष निवास न कर सके तो पन्द्रह दिन, सात रात अथवा तीन रात्रि के निवास का भी महान् फल होता है महाकल्प काल से सञ्चित पाप कर्मों का भी गया में जाकर विनाश हो जाता है । वहाँ पितरों के उद्देश से पिण्डदान करना चाहिये, अपने लिए भी तिल के विना पिण्डदान करने का विधान है। ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, गुरुजनों की स्त्री के साथ समागम, ऐसे घोर पाप एवं ऐसे पापियो के संसर्ग से होने वाले अन्यान्य पाप कर्म गया मे श्राद्ध करने से विनष्ट हो जाते हैं ॥१०-१३॥ अपना औरस पुत्र हो अथवा किसी अन्य का पुत्र हो, जब जब गया क्षेत्र को पवित्र भूमि

  • न विद्यतेऽयं श्लोकः क. पुस्तके | + इदमधं नास्ति ख. पुस्तके | X अयं श्लोको नास्ति ख. पुस्तके |