पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८६

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चतुरधिकशततमोऽध्यायः यच्छ्रवः फलमेवेह जनुषो मे कृतार्थता । एवं ब्रुवन्तमनघं व्यासं सत्यवतीसुतम् ॥ साधु साध्विति संकीर्त्य प्रत्यूचुनिंगमा वचः वेदा ऊचु: साधु साधु महाप्राज्ञ विष्णुरात्मा शरीरिणाम् । अजोऽपि जन्म संपद्य लोकानुग्रहमी हसे अन्यथा ते न घटते संसारकर्मबन्धनस् | अस्पृष्टो मायया देव्या कदाचिज्ज्ञानगूया बिभषि स्वेच्छ्या रूपं स्वेच्छ्यैव निगूहसे | अस्मत्संमत एवार्थो भवता संप्रदर्शितः पुराणेष्वितिहासेषु सूत्रेष्वपि च नैकधा | अक्षरं ब्रह्म परमं सर्वकारणकारणम् तस्याऽऽत्मनोऽप्यात्मभावतया पुष्पस्य गन्धवत् | रसवद्वा स्थितं रूपमवेहि परमं हि तत् १०६५ ॥१०४ ।।१०५ ॥१०६ ॥१०७ ॥१०८ ॥१०६ जायगा । निष्पाप सत्यवती सुत व्यासदेव के इस प्रकार पूछने पर निगमों ने बहुत अच्छा, बहुत अच्छा' कहते हुए उनके प्रश्न का उत्तर दिया |१०२-१०४। वेदों ने कहा - महाप्राज्ञ भगवन् व्यासदेव ! आप को धन्यवाद है, धन्यवाद है। आप साक्षात् विष्णु स्वरूप है, शरीरधारियों के आत्मा हैं, अंजन्मा होकर भी आप जन्म धारण कर लोक के ऊपर अनुग्रह करना चाहते हैं । अन्यथा आप को सांसारिक कर्म वन्वनों का कोई भय नही है । ज्ञान द्वारा गम्य भगवती माया द्वारा आप अछूते है, अर्थात् आप पर माया ( अविद्या ) का कोई प्रभाव नहीं है । आप अपनी इच्छा हो से शरीर धारण करते है और अपनी इच्छा ही से तिरोहित भी होते हैं। हम लोगों को जो मत मान्य है, उसी को आपने भी प्रदर्शित किया है। पुराणों, इतिहासों एवं सूत्रों में आपने अनेक प्रकार उसका प्रतिपादन किया है । वह पर ब्रह्म अक्षर, परम, एवं सभी कारणों का कारण स्वरूप है, अर्थात् उससे परे कोई नहीं है । पुष्प के रस एवं गन्ध की भांति वह आत्मस्वरूप का भी आत्मस्वरूप है । उसी को सब से परम समझो । प्राकृतिक लय के होने पर हम सवों को यही अनुभव हुआ है कि उस अक्षर पर ब्रह्म से परे जो फा० - १३४