पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८५

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१०६४ वायुपुराणम् अतोऽहं प्रष्टुमिच्छामि भवन्तश्चेत्कृपालवः । कर्मणां फलमादिष्टं सर्गः कामकचेतसाम् ईशापितधियां पुंसां कृतस्यापि च कर्मणः | चित्तशुद्धिस्ततो ज्ञानं मोक्षश्च तदनन्तरम् मोक्षो ब्रह्मैक्यमित्येवं सचिदानन्दमेव यत् । सर्वं समाप्यते तस्मिाते यद्धि कृताकृतम् यनिःसङ्गं चिदाकाशं ज्ञानरूपमसंवृतम् । निरोहमचलं शुद्धमगुणं व्यापकं स्मृतम् विकारेषु विनश्यत्सु निविकारं न नश्यति । यथाऽन्धतमसा व्याप्तलोकस्य र [वि] रोजसा लोहस्येव मणिस्तद्वद्मणियाश्वेतयितृ यत् (?) । यदाभासेन सा सत्तां प्रतिपद्य विजृम्भते जोवेश्वरादिरूपेण विश्वाकारेण चाप्यहो | तस्यामपि प्रलीनायां कूटस्थं च यदेकलम् भवद्भिवं निर्णोतं तत्तथैवं न संशयः । तथाऽपि मम जिज्ञासा वर्तते केवलं हृदि अतोऽपि परमं किंचिद्वर्तते किल वा न वा । तद्वदन्तु महाभागा भवन्तस्तत्त्वदर्शनाः ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥ ।।१०० ॥१०१ ॥१०२ ॥१०३ अधिकारियों के भेद बनाकर कर्म एवं ज्ञान के उपदेशों द्वारा समस्त जगत् की निश्चय ही रक्षा की है। यदि आप लोग हमारे ऊपर कृपाशील है तो हम आप से कुछ पूछना चाहते हैं । कामनाओ से घिरे हुए चित्तोंवाले मनुष्यो के जो कुछ भी सत्कर्म होते हैं, उन सब का फल स्वर्ग कहा गया है। ईश्वर में अपनी चित्त-वृत्ति को लगाने वाले पुरुषों के कर्मों का फल चित्त शुद्धि मानी गयी है । चित्त शुद्ध से ही ज्ञान को प्राप्ति होती है, ज्ञान प्राप्ति से मोक्ष मिलता है। वही मोक्ष ही ब्रह्म के साथ एकता है, वह सत् चित् एवं आनन्द स्वरूप है । उसके भली भांति जान लेने पर जो कुछ भी कृत अकृत रहता है, समाप्त हो जाता है। अर्थात् फिर उसका फल भोगना नहीं पड़ता । वह निःसङ्ग चिदाकाश (आकाश की भांति सब का आधार एवं निर्लेप) ज्ञान रूप, असंवृत, निरीह, अचल, शुद्ध, गुणातीत एवं व्यापक स्मरण किया जाता है ।९४-६८। जगत् के समस्त विकारों के विनष्ट हो जाने पर भी वह निर्विकार नष्ट नही होता | घोर अन्धकार से व्याप्त जगत् को जिस प्रकार सूर्य अपने तेज से आलोकित करता है, मणि जिस प्रकार लोह को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार निर्विकार ब्रह्म भी इस जगत् को आलोकित करता है उसी के गाभास मात्र से यह सारी सृष्टि प्रकाशित होती है । इस सृष्टि के प्रलीन हो जाने पर वह परग्रहा जीवेश्वरादि रूप से एवं अपनी विश्वाकृति से कूटस्थ एवं अद्वितीय रूप में परिशेष रहता है। उसका सम्यक् निर्णय आप ही लोगों ने किया है वह उसी प्रकार का है, जैसा आप लोगों ने निर्णय किया है । इसमें सन्देह नही । ऐसा होने पर भी मेरे हृदय में केवल एक जिज्ञासा वर्तमान है । ९६ - १०२। उस पर ब्रह्म से भी बढ़कर कोई अन्य सत्ता है अथवा नहीं, हे महाभाग्य- शालियो ! आप सब तत्त्वों के पारदर्शी हैं, कृपया इस जिज्ञासा को शान्ति कीजिये । सचमुच उसी के श्रवण का फल ही हमारे जन्म की कृतार्थता है, अर्थात् इस परम गोपनीय विषय को जानकर मेरा जन्म सफल हो,