पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७९

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१०५८ वायुपुराणम् यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं यदिदं स्मृतम् | यदज्ञानाज्जगद्भाति यस्मिञ्ज्ञाते जगन्न हि असत्यं यज्जडं दुःखं अवस्त्विति निरूपितम् । विपरीतमतो यद्वै सच्चिदानन्दमूर्तिक जीवे जाग्रति विश्वाख्यं स्वप्ने यत्तैजसं स्मृतम् । सुषुप्तौ प्राज्ञसंज्ञं यत्सर्वावस्थासु संस्मृतम् यच्चक्षुषां चक्षुरथ श्रोत्राणां श्रोत्रसप्यति । त्वक्त्वचां रसनं तस्य प्राणं प्राणस्य यद्विदुः बुद्धिज्ञानेन च प्राणाः क्रियाशक्त्या निरन्तरम् | यन्नेशिरे समभ्येतुं ज्ञातुं च परमार्थतः रज्जावहिर्मरी वारि नोलिमा गगने यथा । असद्विश्वमिदं भाति यस्मिन्नज्ञानकल्पितन् घटावच्छिन्न एवायं महाफाशो विभिद्यते । कार्योपाधिपरिच्छिन्नं तद्वद्यज्जीवसंज्ञकम् मायया चित्रकारिण्या विचित्रगुणशीलया । ब्रह्माण्डं चित्रमतुलं यस्मिन्भित्ताविवापितम् धावतोऽन्यानतिकान्तं वदतो वागगोचरम् । वेदवेदान्तसिद्धान्तैर्विनिर्णोतं तदक्षरम् अक्षरान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः । इत्येवं श्रूयते वेदे बहुधाऽपि विचारिते अक्षरस्याऽऽत्मनश्चापि स्वात्मरूपतया स्थितम् । परमानन्द संदोहरूपमानन्दविग्रहम् ॥३४ ॥३५ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ है, उसी के द्वारा इसकी पालना होती है, वह स्वयं जगत् रूप है । उसी के न जानने से जगत् की सत्ता का बोध होता है, उसके जान लेने पर यह सब मिथ्या मालूम पड़ता है। वह असत्य जड़, दुःख एवं अवस्तु | निरूपित किया गया है, इसके विपरीत वह पर ब्रह्म सत् चित् आनन्द एवं मूर्तमान् है । वह जीवों की जागरण अवस्था में विश्व, स्वप्नावस्था मे तेजस एवं सुषुप्ति में प्राज्ञ संज्ञक है, सभी अवस्थाओं में उसका अस्तित्व स्मरण किया जाता है । वह चक्षुओं का भी चक्षु है, श्रोत्रों का भी श्रोत्र है, त्वचा को भी त्वचा है, रसना को भी रसना है और अधिक क्या प्राणो का भी प्राण है, ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं | ३३-३७७ मानव अपनी बुद्धि, ज्ञान, प्राण एवं क्रिया शक्ति - इन सब के द्वारा निरन्तर अध्यवसाय करते रहने पर भी उसके परमार्थ को ज्ञानने एवं वहां तक पहुँचने में असमर्थ है रज्जु में सर्प, वालू में जल, गगन में नीलिमा की भांति अविद्या के कारण यह असत् जगत् सत् रूप की भाँति प्रतीत होता है । जिस प्रकार यह महान् आकाश घटादि के भीतर होने कारण घटाकाश आदि नामों से भिन्न रूप से पुकारा जाता है, उसी प्रकार वह परब्रह्म कार्योपाधि से परिछिन्न होकर जीवात्मा नाम से प्रसिद्ध होता है। विचित्र गुण शालिनी चित्रकारिणी माया द्वारा यह ब्रह्माण्ड रूप चित्र भित्ति की तरह उस पर ब्रह्म मे चित्रित है । वह अक्षर पर ब्रह्म अन्य दौड़ने वालों को भो अतिक्रान्त करनेवाला तथा वक्ता की युक्ति भरी वाणी से भी अगोचर है। वेदों एवं वेदान्तों के सिद्धान्तों द्वारा निर्णय होता है ।३८-४२। उस परा शक्ति सम्पन्न पर ब्रह्म से परे कुछ नहीं है, वही एक मात्र परा काठा है, परा गति है । अनेक बार विचार करने के बाद वेदों से यही निश्चय हुआ | सुना जाता है कि अपनी