पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८०

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चतुरधिकशततमोऽध्यायः लोलाविलासरसिकं बल्लवीयूथमध्यगम् | शिखिपिच्छकिरीटेन भास्चद्रत्नचितेन च उल्लसद्विद्युदाटोप कुण्डलाम्यां विराजितम् । कर्णोपान्तचरन्नेत्रखञ्जरीटमनोहम् कुञ्जकुञ्जप्रियावृन्दविलासरतिलम्पटम् । पीताम्बरधरं दिव्यं चम्चनालेपमण्डितम् अधरामृतसंसिक्तवेणुनादेन बल्लवीः । मोहयन्तं चिदानन्दमनङ्गमदभञ्जनम् कोटिकामकलापूर्णं फोटिचन्द्रांशुनिर्मलम् | द्विरेफकण्ठविलसद्रत्नगुञ्जामृगाकुलन् यमुनापुलिने तुङ्गे तमालवनकानने | कदम्बचम्पकाशोक पारिजातमनोहरे शिखिपारावतशुकपिककोलाहलाकुले | निरोधार्थ गवामेव धावमानमितस्ततः राधाविलासरसिकं कृष्णाख्यं पुरुषं परम् | श्रुतवानस्ति वेदेभ्यो यतस्तन्द्‌गोचरोऽभवत् एवं ब्रह्मणि चिन्मात्रे निर्गुणे भेदवजिते । गोलोकसंज्ञके कृष्णो दोव्यतीति श्रुतं मया नातः परतरं किंचिनिगमागसयोरपि । तथापि निगमो वक्ति ह्यक्षरात्परतः परः गोलोकवासी भगवानक्षरात्पर उच्यते । तस्मादपि परः कोऽसौ गीयते श्रुतिभिः सदा १०५६ ।।४५ .।।४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ अव्ययात्मा में आत्म रूप से अवस्थित, परमानन्द सन्दोह स्वरूप, आनन्द विग्रह, लोला विलास रसिक गोपियों के समूह में विचरण करनेवाले चमकीले रत्नों से गुम्फित मयूर के पिच्छों के बने, हुये मनोहरु किरीट से सुशोभित, चमकती हुई बिजली की रेखाओं के समान आँखों को चकाचौंध कर देने वाले कुण्डलों से विराजमान, कानों के समीप तक लम्बे, मनोहर खञ्जरीट समान चञ्चल नेत्रों वाले, कुञ्ज कुञ्ज में प्रिय गोपियों के वृन्द में रतिक्रीड़ा के अभिलाषी, पीताम्बरधारी, दिव्य चन्दन एवं अङ्गरागादिकों के विलेपन से सुगन्धित, अपने अधरामृत से संसिक्त वेणू के सुरम्य नाद से गोपियो को विमोहित करनेवाले, चित्स्वरूप, आनन्द रूप, अनङ्ग मद भञ्जक, कोटि काम की कला से पूर्ण, कोटि चन्द्र को किरणों के समान निर्मल, भ्रमरो के सुरम्य गुजार से विराजित, रत्नपूर्ण गुञ्जाओं एवं मृगों से चारों ओर घिरे हुए पवित्र उच्च यमुना तट पर तमाल के रमणीय वनों में, कदम्ब, चम्पक, अशोक और पारिजात' के वृक्षों से मनोहर, मयूर, पारावत, शुक्र, पिकादि पक्षियों के कोलाहल से पूर्ण, वन प्रान्तों में गौओं के रक्षार्थ इधर उधर दौड़ते हुए, राधा के विलास के प्रेमी, श्रीकृष्ण ही वह परम पुरुष हैं । वेदों से भी यही सुना जाता है। उन्हों से इस समस्त ब्रह्माण्ड का प्रकाश होता है |४३-५२। वह परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण चिन्मात्र निर्गुण, भेद विहीन ब्रह्म मय गोलोक में विहार करने वाले हैं - ऐसा हमने सुना है। उनसे परे कोई भी वस्तु इस विशाल ब्रह्माण्ड में नहीं है । निगमागमों से यही बात प्रमाणित होती है। ऐसा होने पर भी निगम कहता है कि वे परम पुरुष अक्षर से भी परवर्ती है | वे गोलोक वासी भगवान कृष्ण अक्षर से परे कहे जाते हैं । उस अक्षर से