पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चतुरधिकशततमोऽध्यायः आचरन्ति महाप्राज्ञा धारणां च पृथग्विधाम् । आसनं प्राणरोधश्च प्रत्याहारश्च धारणा ध्यानं समाधिरेतानि यमैश्च नियमैः सह । अष्टाङ्गानि यदर्थं च चरन्ति सुनिपुङ्गवाः यदर्थं कर्म कुर्वन्ति वेदाज्ञामात्रतत्पराः । परार्पणधिया सम्यनिष्कामाः कलिलोज्झिताः मज्ज्ञप्तये निराकर्तु पापाचरणमात्मनः । गङ्गादितीर्थचर्याणि निषेवन्ते शुचिव्रताः तद्ब्रह्म परमं शुद्ध मनाद्यन्तमनामघम् । नित्यं सर्वगतं स्थाणु फुटस्थं कूटवर्जितम् सर्वेन्द्रियचराभासं प्राकृतेन्द्रियर्वाणितस् । दिक्कालाद्यनवछिन्नं नित्यं चिन्मात्रमव्ययम् अध्यास्तं सर्ववद्यत्र विश्वमेतत्प्रकाशते । विश्वस्मिन्नपि चान्वेति निर्विकारं च रज्जुवत् सम्यग्विचारितं यद्वत्फेनोमिबुदबुदोदकम् । तथा विचारितं ब्रह्म विश्वस्मान्न पृथग्भवेत् सर्वं ब्रह्मैव नानात्वं नास्तीति निगमा जगुः । यस्माद्भवन्ति ब्रह्माण्डकोटयो न भवन्ति च यदुम्मेषनिमेषाभ्यां जगतां प्रलयोदयौ । भवेतां या परा शक्तिर्यदाधारतया स्थिता १०५७ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ ॥३२ ॥३३ वानप्रस्थ, एवं सन्यास आदि धर्मो का प्रतिपालन करते है, बड़े बड़े मुनि पुजव आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, यम, नियम और समाधि — इन आठों अङ्गो का विधिवत् पालन करते है । एक मात्र वेदों के वचनों में आस्था रखनेवाले उसी परम ब्रह्म के उद्देश से कर्म करते हैं, परार्पण बुद्धि से वे निष्काम एवं पाप रहित भावना से जीवन यापन करते हैं। अपने पापाचरण को निराकृत करने के लिये पवित्रात्मा उसी ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिये गंगा आदि पवित्र तीर्थों का सेवन करते हैं |२३-२७१ वह परम ब्रह्म शुद्ध, अनादि, अनन्त एव अनामय है । नित्य, सर्वगत, स्थाणु, कूटस्थ एवं कूट वर्णित है । समस्त इन्द्रिय ग्रामों में विचरण करनेवाला, अतीन्द्रिय, दिनकालात्मक, नित्य, चिन्मात्र एवं अव्यय है । इस निखिल ब्रह्माण्ड में वह सर्वत्र व्याप्त है, उसी की ज्योति से यह सुप्रकाशित है। रज्जु की तरह निर्विकार वह ब्रह्म इस समस्त विश्व मे भी संयुक्त नही होता । सम्यक् विचार करने पर वह फेन, तरङ्ग, बुद्बुद एवं उदक की तरह है । अर्थात् जिस प्रकार फेन, तरङ्ग, बुद्बुद ये सब जल के विकार ही हैं, जल से अलग इनकी अपनी कोई सत्ता नही है, उसी प्रकार अच्छी तरह विचार करने पर यह निश्चय हो जाता है कि वह ब्रह्म समस्त विश्व विभूतियों से पृथक् नही है | सब कुछ ब्रह्म ही है, जगत् में अनेक कुछ नहीं है— यही सब वेदों का परमार्थ है । उसी से इन समस्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति होती है, और उसी में ये पुनः समाविष्ट हो जाते हैं ।२८-३२। उसी के उन्मेष और निमेष से जगत् का प्रलय एवं उदय होता है । उसी की आधारभूत वह परा शक्ति है, जो समस्त जगत् की सृष्टि, स्थिति एवं विनाषाकर्त्री है। उसी में यह समस्त जगत् अवस्थित है, उसी से इसकी उत्पत्ति होती फा०-१३३