पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७०

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त्र्यधिकशततमोऽध्यायः गुणमात्रात्मकाश्चैव धर्माधम परस्परम् | आरप्सन्ती ( भन्ते ) ह चान्योन्यं वरेणानुग्रहेण च सर्वे तुल्या: प्रसृष्टार्थं सर्गादौ यान्ति विक्रियाम् | गुणास्तत्प्रतिधावन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते गुणास्ते यानि सर्वाणि प्राक्सृष्टेः प्रतिपेदिरे | तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः हिलाहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते । तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते • महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु । विप्रयोगाश्च भूतानां गुणेभ्यः संप्रवर्तते इत्येष दो मया ख्यातः पुनः सर्गः समासतः * | समासादेव वक्ष्यामि ब्रह्मणोऽथ समुद्भवम् अव्यक्तात्कारणात्तस्मान्नित्यात्सदसदात्मकात् । प्रधानपुरुषाभ्यां तु जायते च महेश्वरः स पुत्रः संभवपिता जायते ब्रह्मसंज्ञितः | सृजते स पुनर्लोकानभिमानगुणात्मकान् अहंकारस्तु महतस्तस्माद्भूतानि चाऽऽत्मनः | युगपत्संप्रवर्तन्ते भूतान्येवेन्द्रियाणि च ॥ भूतभेदाच भूतेभ्य इति सर्गः प्रवर्तते gözé

इत उत्तरमयं श्लोकः ख. पुस्तके स यथा- धारणाक्षुतबुद्धीनां योगानां चैव धार्यताम् । यतेन्द्रिया: सुसंबन्धाधारणाद्योगनिश्चयाः । इति । फा० - १३२ ॥३० ॥३१ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ साथ कार्य रूप में पुनः पुनः आविर्भूत तिरोभूत होती हैं | २३-२९| क्षेत्रज्ञ गण सृष्टि विस्तार के लिये परस्पर तुल्य होकर भी सृष्टि के उस आदिम काल मे गुणमात्रात्मक धर्म अधर्म वर अनुग्रह आदि से विविध विकार को प्राप्त होते हैं, गुणों की विचित्रता के कारण ही वे इस प्रकार विकार को प्राप्त होते है, उनके पूर्व युगीन गुणगण उनके समीप स्वयमेव अनुधावन करते हैं । इसी लिए वे उन्हें रुचिकर प्रतीत होते हैं। पूर्व सृष्टि में क्षेत्रज्ञों के जो गुण रहते हैं इस पर सृष्टि काल में भी उन्हीं गुणों के वे पुनः पुनः प्राप्त करते हैं । हिंस्र, अहिंस्र, मृट्ठ, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य - ये गुण गण उनसे पूर्व सृष्टि के भावित रहते हैं अतः इस पर सृष्टि मे वे उन्हें प्राप्त होते है, इसी कारण वश उन्हें ये रुचिकर भी होते है | महाभूत, इन्द्रियार्थ, मूर्त पदार्थ एवं प्राणिवृन्द की अनेकता - ये सन कार्य कलाप गुणों की विचित्रता के कारण ही घटित होते हैं । संक्षेप में पुनर्वार सृष्टि के क्रम को मै आप लोगों को सुना चुका | अब संक्षेप में ब्रह्मा की उत्पत्ति का वर्णन कर रहा हूं |३०-३५॥ नित्य, सत् असत् – उभयात्मक, अव्यक्त, कारण स्वरूप प्रकृति पुरुष के संयोग से एक महान् ऐश्वर्यशाली पुत्र उत्पन्न होता है उसी का पिता है | अभिमान गुणात्मक समस्त लोकों की सृष्टि जाता है । उस महत् से महकार का उद्भव होता है | का नाम ब्रह्मा है । वही समस्त उत्पन्न पदार्थों करता है । वही महत् पद से भी विशिष्ट कहा उसकी आत्मा से भूतों की उत्पत्ति होती है, वे