पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६९

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१०४८ वायुपुराणम् ततः प्रपत्स्यते व्यक्तं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोद्वयोः । क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं सत्त्वं विकारं जनयिष्यति महदाद्यं विशेषान्तं चतुर्विंशगुणात्मकम् । क्षेत्रज्ञस्य प्रधानस्य पुरुषस्य प्रपत्स्यते ब्रह्माण्डे प्रथमः सोऽथ भविता चेश्वरः पुनः । ततो ज्ञेयस्य कृत्स्नस्य सर्वभूतपतिः शिवः ईश्वरः सर्वमुक्तानां ब्रह्मा ब्रह्ममयो महान् । आदिदेवः प्रधानस्यानुग्रहाय प्रवक्ष्यते अनाद्यौ वरमुत्पादावुभौ सूक्ष्मौ तु तौ स्मृतौ । अनादिसंयोगयुतौ सर्वक्षेत्रज्ञमेव च अबुद्धिपूर्वकं युक्तौ मशकौ तु वरौ तदा । अप्रत्ययमनाद्यं च स्थितावुदकमप्स्यश: ( ? ) प्रवृत्ते पूर्वतः पूर्वं पुनः सर्गे प्रपत्स्यते । अज्ञा गुणैः प्रवर्तन्ते रजःसत्त्वतमात्मकम् प्रवृत्तिकाले रजसाऽभिपन्नमहत्त्वमृतादिविशेष्यतां च । विशेषतां चेन्द्रियतां च यान्ति गुणावसाने पतिभिर्मनुष्याः सत्याभिध्यायिनस्तस्य ध्यायिनः सन्निमित्तकम् | रजःसत्त्वतमा व्यक्ता विधर्माणः परस्परम् आद्यन्ते संप्रपत्स्यन्ते क्षेत्रतज्ज्ञास्तु सर्वशः । संसिद्धकार्यकरणा उत्पद्यन्तेऽभिमानिनः • सर्वे सत्त्वाः प्रपद्यन्ते अव्यक्तात्पूर्वमेव च । प्रसूते या च सुवहाः साधिकाश्चाप्यसाधिका संसरन्तस्तु ते सर्वे स्थानप्रकरणैः सह । कार्याणि प्रतिपत्स्यन्त उत्पद्यन्ते पुनः पुनः ॥१८ ॥१ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ क्षेत्रज्ञ द्वारा अधिष्ठित सत्त्व विकार को उत्पन्न करेंगे। वे विकार महत्तत्त्व से लेकर विशेष तक चौबीस गुणात्मक माने गये है । क्षेत्रज्ञ पुरुष एवं प्रकृति को प्राप्त होगे । ब्रह्माण्ड में प्रथम वह ऐश्वर्यशाली पुनः उत्पन्न होगा | वह समस्त ज्ञेय जगत् का एवं समस्त जोव समूह का अवीवर एवं शिव है । सभो मुक्तात्माओं का एक मात्र स्वामी, ब्रह्मा, ब्रह्ममय एवं महान् है | आदि देव है, प्रधान प्रकृति के अनुग्रह के लिए उसका यह आविर्भाव कहा जाता है। वे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अनादि एक परम सूक्ष्म कहे जाते हैं, अनादि काल से उन दोनों का संयोग कहा जाता है, समस्त क्षेत्र के वे अभिज्ञ हैं |१७-२२। मशक और उदुम्बर, जल और मत्स्य को भाँति इनका सम्बन्ध अप्रतर्कय अनादि तथा नियत है । (१) अज्ञ प्रकृति पुनः सृष्टि काल में अपने रजस् सत्त्व एवं तमस् गुणों के योग से विकार युक्त होकर जगत् के रूप में परिणत हो जातो है । क्षेत्रज्ञ मानव मण इस प्रकृति के सृष्टि प्रवृत्ति काल में रजोगुण से आक्रान्त होकर महत्तत्व, महाभूत, इन्द्रिय एवं विशेषादि परिणामो का लाभ कर गुणों के अवसान को प्राप्त होते हैं । सत्य का सङ्कल्प करने वाले ध्याननिष्ठ ब्रह्मा की सृष्टि प्रवृत्ति के समय परस्पर विधर्मी रजस्, सत्त्व, तमोगुण कार्यकारण वश व्यक्ता- वस्था को प्राप्त होते है | अभिमानी क्षेत्र एवं उसके जामने वाले क्षेत्रज्ञ परस्पर व्यक्तभाव को सम्प्राप्त होगे (?) अव्यक्त से प्रथम साधिका एवं असाधिका सत्त्वगुणमयी सृष्टि प्रादुर्भूत होकर स्थान एवं प्रकरणादि के