पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६८

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त्र्यंधिकशततमोऽध्यायः एवमुक्तस्ततः सूतस्तदाऽसौ लोमहर्षणः | व्याख्यातुसुपचकाम पुनः सर्गप्रवर्तनम् ] अहं वो वर्तयिष्यामि यथा सर्गः प्रपत्स्यते । पूर्ववत्स तु विज्ञेयः समासात्तं निबोधत दृष्टं चैवानुमेयं च तर्क वक्ष्यामि युक्तितः | तस्माद्वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह अव्यक्तवत्परोक्षत्वाद्ग्रहणं तद्दुरासदम् । विकारैः प्रतिसंदृष्टे गुणसास्ये निवर्तते प्रधानं पुरुषाणां च साधर्म्येणैव तिष्ठति | धर्माधर्मो प्रलीयेते अव्यक्तौ प्राणिनां सदा सत्त्वमात्रात्मको धर्मो गुणसत्त्वे प्रतिष्ठितः । तमोमात्रात्मकोऽधर्मो गुणे तमसि तिष्ठति अविभागवन्तावेतौ गुणसाम्यस्थितावुभौ । सर्वकार्ये बुद्धिपूर्व प्रधानस्य प्रपत्स्यते अवुद्धिपूर्वं क्षेत्रज्ञो ह्यधिष्ठास्यति तान्गुणान् । एवं तानभिमानेन प्रपत्स्येत पुरस्तदा यदा प्रर्वाततव्यं तु क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्द्वयोः । भोज्यभोक्तृत्वसंबन्धं प्रपत्स्येते युतावुभौ तस्माच्छ्ररणमव्यक्तं साम्ये स्थित्वा गुणात्मकान् । क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं तच्च वैषभ्यं भजते तु तत् ॥१७ ॥ १४ ॥१५ ॥१६ १०४७ 115 ॥ ॥१० ॥ ११ ॥१२ सन्निविष्ट होकर अव्यक्तात्मा में विलीन हो जाते है, तब पुनः सृष्टि का प्रारम्भ किस प्रकार होता है ? उसे आप अच्छी तरह हम लोगों को बतलाइये । ऋपियों द्वारा पूछे जाने पर लोमहर्षण सूत जी पुनः सृष्टि विषय की व्याख्या करते हुए बोले, ऋषिवृन्द ! उस अवस्था में जिस प्रकार पुनः सृष्टि का प्रारम्भ होता है, मैं बतला रहा । संक्षेप में इस पुनः सृष्टि का क्रम पूर्ववत् ही हना चाहिये, फिर भी संक्षेप में बतला रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ! मैंने जैसा देखा है, अनुमान किया है जिस प्रकार की युक्तियाँ एवं तर्क प्रचलित हैं, उन सब को बतला रहा हूँ, सुनिये । वाणी उस सृष्टि तत्त्व तक मन के साथ ही अपनी गति प्राप्त न करके निवृत्त हो जाती है |६-१०। जिस प्रकार अव्यक्त परोक्ष एवं दुरधिगम्य है, उसी प्रकार सृष्टि के विषय भी परोक्ष एवं दुरधिगम्य है । जव विकार विलीन हो जाते है, उनका कही दर्शन नहीं होता, गुणों में साभ्य हो जाता है, संसृति के कार्यजाल निवृत्त हो जाते हैं, उस समय पुरुष प्रकृति में साधर्म्य से अवस्थित होता है, प्राणियों के व्यक्ताव्यक्त धर्माधर्मं भी विलीन हो जाते हैं । गुण सत्व में सत्त्वमात्रात्मक 'धर्मं प्रतिष्ठित होता है, तमोगुण में तमोमात्रात्मक गुण प्रतिष्ठित होता है। गुणासाम्यावस्था में ये दोनों गुण विभाग रहित हो जाते हैं । उस समय प्रधान के सभी कार्यों में प्रवृत्ति बुद्धि पूर्वक होगी। क्षेत्रज्ञ उन गुणों को अबुद्धिपूर्वक अधिष्ठित करेगा | उस समय पुर भी अभिमान पूर्वक प्राप्त होगा | जब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ये दोनों परस्पर प्रवर्तित होगे उस समय वे भोज्य और भोक्तृत्व सम्बन्ध से समन्वित होंगे ।११-१६। अतः इन सब की शरण एकमात्र अव्यक्त है, साम्यावस्था में प्रतिष्ठित वे गुणगण सृष्टि प्रारम्भ के समय क्षेत्रज्ञ द्वारा अघिष्ठित होकर विषमता को प्राप्त होते है । तब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ये दोनों व्यक्तावस्था को प्राप्त होंगे