१०४६ वायुपुराणम् अथ त्र्यधिकशततमोऽध्यायः अथ सृष्टिवर्णनम् ॠषय ऊचुः सूत सुमहदाख्यानं भवता परिकीर्तितम् । प्रजानां मनुभिः सार्धं देवानामृषिभिः सह पितृगन्धर्वभूतानां पिशाचोरगरक्षसाम् | दैत्यानां दानवानां च यक्षाणामेव पक्षिणास् अत्यद्भुतानि कर्माणि विधिसान्धर्मनिश्चयः । विचित्राश्च कथायोगा जन्म चाग्र्यमनुत्तमम् तत्कथ्यमानमस्माकं भवता श्लक्ष्णया गिरा | मनःकर्णसुखं सौते प्रोणात्याभूतसंभवम् एवमाराध्य ते सूतं सत्कृत्य च महर्षयः | पप्रच्छुः सत्रिणः सर्वे पुनः सर्गप्रवर्तनम् [* कथं सूत महाप्राज्ञ पुनः सर्गः प्रपत्स्यते । बन्धेषु संप्रलीनेषु गुणसाम्ये तमोमये विकारेष्वविसृष्टेषु अव्यक्ते चात्मनि स्थिते | + अप्रवृत्ते ब्राह्मणानु महासायो (यु) ज्यगैस्तदा ॥ कथं प्रपस्यते सर्गस्तन्नः प्रब्रूहि पृच्छताम् ॥५ ॥६ ॥७ 1 ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ अध्याय १०३ सृष्टि वर्णन ऋषियों ने कहा- सूत जी ! आप ने एक महान् आख्यान हम लोगों से कहा | मनु समेत समस्त प्रजाओं, ऋषियों समेत समस्त देवताओं, पितरों, गन्धर्वो, भूतों, पिचाशों, उरगों, राक्षसों, दैत्यो, दानवों, यक्षों एवं पक्षियों के अति अद्भुत कर्म, उनके धर्म निश्चय, उनके जन्म की विचित्र एवं श्रेष्ठ कथाएँ, जो मन को एवं कान को सुख देने वाली थी आपने हम लोगों को अपनी परम मनोहर वाणी में सुनाया | सूत पुत्र वे कथाएँ सचमुच मनुष्य को महाप्रलय पर्यन्त प्रसन्न रखनेवाली हैं। इस प्रकार उन सब यज्ञकर्ता महर्षियों ने सूत जी का सत्कार एवं समादर करते हुए पुनः सृष्टि प्रवर्तन की आख्या पूछा |१५| महाप्राज्ञ सूत जी ! जव क्षेत्रज्ञ समस्त प्राकृत गुण वन्धनो से विमुक्त हो जाता है, प्रकृति के सत्त्व, रजस्, तमस् ये तीनों गुण साम्यावस्था में परिणत हो जाते है, समस्त ब्रह्माण्ड घोर अन्धकार मय हो जाता है, विकार समूह निष्क्रिय एवं प्रवृत्ति रहित हो जाते हैं, जीव समूह ब्रह्मा के साथ ही महान् साम्राज्य मे
- धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति | + नास्त्यर्घमिदं घ पुस्तके |