पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६६

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः यावच्च सर्गप्रतिसर्गकालस्तावच्च तिष्ठति सुसंनिरुध्य | पूर्व हितव्ये (?) तदबुद्धिपूर्व प्रवर्तते तत्पुरुषार्थमेव एषा निसर्गप्रतिसर्गपूर्व प्र (प्रा) धानिकी चेश्वरकारिता च । अनाद्यनन्ता हाभिमानपूर्वकं वित्रासयन्ती जगदम्युपैति इत्येष प्राकृतः सर्गस्तृतीयो हेतुलक्षणः । उक्तो हास्मस्तदाऽत्यन्तं करयस्तत्प्रमुच्यते ( ? ) इत्येष प्रतिसर्गो वस्त्रिविधः कीर्तितो मया । विस्तरेणाऽऽनुपूर्व्या च भूयः किं वर्तयाम्यहम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते प्रतिसर्गवर्णनं नाम द्वयधिकशततमोऽध्यायः ॥१०२॥ १०४५ श्री वायुपुराण में प्रतिसर्गवर्णन नामक एक सौ दो अध्याय समाप्त ॥ १०२ ॥ ॥१३२ ॥१३३ ॥१३४ ॥१३५ इसका आदि काल नहीं है, चिरकाल से वह है । सृष्टि के आदिमकाल से लेकर विनाशकाल तक प्रकृति उस परमपुरुष को सन्निरुद्ध करके रखती है, उस अवस्था में पुरुष से अबुद्धिपूर्वक यह सृष्टि प्रवर्तित होती है (१) उसे पुरुष का पुरुषार्थ ही मानते है । जगत् की इस सृष्टि एवं संहार की इस प्रक्रिया को कोई तो ईश्वरकृत मानते हैं और कोई प्राधानिक अर्थात् प्रकृतिकृत | परन्तु सृष्टि का यह व्यापार अनादि एवं अनन्त है । जगत् को अभिमान पूर्वक वित्रासित करती हुई वह प्रकृति प्राप्त होती है । प्रकृति जन्य सृष्टि का यह तृतीय हेतु कहा जा चुका, इनमें अत्यन्त निष्ठा रखने वाला मुक्ति प्राप्त करता है | ( १ ) आप लोगो से इस प्रकार तीन प्रतिसर्गों की चर्चा में विस्तार पूर्वक क्रमश: कर चुका, अब आगे के लिये बतलाइये, मैं क्या कहूँ | १३१-१३५॥