पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६५

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१०४४ वायुपुराणम् ॥१२३ एवं ज्ञात्वा स विज्ञाता ततः शान्तिं नियच्छति । कार्ये च कारणे चैव बुद्धयादौ भौतिके तदा ॥१२२ संप्रयुक्तो वियुक्तो वा जीवतो वा मृतस्य च | विज्ञाता न च दृश्येत पृथक्त्वेनेह सर्वशः स्वेनाऽऽत्मानं तमात्मानं कारणात्मा नियच्छति । प्रकृतौ कारणे चैव स्वात्मन्येवोपतिष्ठति ॥१२४ अस्ति नास्तीति सोऽन्यो वा इहामुत्रेति वा पुनः । एकत्वं वा पृथक्त्वं वा क्षेत्रज्ञपुरुषेति (?) वा ॥ १२५ आत्मवान्स निरात्मा वा चेतनोऽचेतनोऽपि वा । कर्ता वा साऽप्यकर्ता वा भोक्ता वा भोज्यमेव वा ॥ यज्जात्वा न निवर्तन्ते क्षेत्रज्ञे तु निरञ्जने | अवाच्यं तदनाख्यानादग्राह्यत्वादहेतुनि अप्रतर्क्यमचिन्त्यत्वादवाप्यत्वाच्च सर्वशः । नाभिलिम्पति तत्तत्त्वं संप्राप्य मनसा सह क्षेत्रज्ञे निर्गुणे शुद्धे शान्ते क्षोणे निरञ्जने । व्यपेतसुखःदुखे च विरुद्धे शान्तिमागते निरात्मके पुनस्तस्मिन्वाच्यावाच्यो न विद्यते । एतौ संहारविस्तारौ व्यक्ताव्यक्तौ ततः पुनः ॥१२६ सृजते ग्रसते चैव ग्रस्तः पर्यवतिष्ठते । क्षेत्राधिष्ठितं सर्वं पुनः सर्वं प्रवर्तते । ॥१२८ ॥१३० अधिष्ठानप्रवृत्तेन तस्य ते वृद्धिपूर्वकम् । साधर्म्यवैधर्म्यकृतः संयोगो विधितस्तयोः ॥ अनादिमान्स संयोगो महापुरुषजः स्मृतः ॥१२६ ॥१२७ ॥१३१ प्राणी देखता है तभी वह समस्त तत्वों का ज्ञान प्राप्त करता है और तभी उसे वास्तविक शान्ति की उपलब्धि होती है। कार्य, कारण, भौतिक बुद्धि आदि पदार्थ समूह, संयुक्त अथवा वियुक्त, जोवित अथवा मृत इन सब में वह विज्ञाता पृथक्त्व का दर्शन नहीं करता । आत्मा द्वारा वह उस कारणात्मा से संयुक्त होता है, प्रकृति एवं कारण में वह सर्वत्र अपनी ही वात्मा मे उपासना करता है । इस लोक अथवा पर लोक में वह विद्यमान रहता है और नहीं भी रहता है। वह एक है अथवा अनेक है, क्षेत्रज्ञ है अथवा पुरुष है, आत्मवान् है, अथवा निरात्मा है, चेतन है, अथवा अचेतन है, कर्त्ता है वा अकर्ता है, भोक्ता है वा भोज्य है इन किन्हीं भी विशेषणों से विशिष्ट एवं अविशिष्ट है |१२१-१२५। उस निरञ्जन क्षेत्रज्ञ को जानने के बाद संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती, उसकी कोई संज्ञा नही होती इसी कारण से वह अवाच्य कहा जाता है । उसके कोई हेतु नहीं हैं, अतः वह अग्राह्य है । चिन्तन से परे एवं सर्वत्र प्राप्य ( व्याप्त) होने के कारण वह अप्रतक्यं है । मन के साथ उसे प्राप्त करने के उपरान्त अन्य विषयों में आसक्त नहीं होना पड़ता । क्षेत्रज्ञ के गुण रहित शुद्ध, शान्त, क्षीण, मल रहित, सुख दुःख से विहीन, परम शान्ति प्राप्त कर लेने; एवं निरात्मक हो जाने पर वाच्य एवं अवाच्य का अस्तित्व नही रह जाता | व्यक्त एवं अव्यक्त सृष्टि का संसार एवं विस्तार उसी परम पुरुष से प्रतिष्ठित होता है। क्षेत्रज्ञ द्वारा अधिष्ठित इस समस्त जगत् की वह पुरुष सृष्टि करता है, और लय काल में वही ग्रस लेता है ।१२६ - १३० | बुद्धि पूर्वक जगत् को सृष्टि एवं लय उसी के अधिष्ठान भूत होते हैं। उन दोनों के (प्रकृति एवं पुरुष के ) संयोग साधर्म्यं वैधर्म्य घदित होते हैं । उसका संयोग कब हुआ