पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७१

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१०५० वायुपुराणम् विस्तरावरावस्तेषां यथाप्रज्ञं यथाश्रुतम् | कीर्तितं वो यथा पूर्वं तथैवाभ्युपधार्यताम् एतच्छु त्वा नैमिषेयास्तदानीं लोकोत्पत्ति संस्थितिं च व्ययं च ॥ 10 तस्मिन्सत्रेऽवभृथं प्राप्य शुद्धाः पुण्यं लोकमृषयः प्राप्नुवन्ति यथा यूयं विधिवद्देवतादीनिष्ट्वा चैवावभृथं प्राप्य शुद्धाः ॥ त्यक्त्वा देहानायुषोऽन्ते कृतार्थान्पुण्याँल्लोकान्प्राप्य यथेष्टं चरिष्यथ एते ते नैमिषेया वै इष्ट्वा सृष्ट्वा च वै तदा । जग्मुश्चावभृथस्नाताः स्वर्ग सर्वे तु सत्रिणः विप्रास्तथा यूयमपि दृष्ट्वा बहुविधैर्मखैः | आयुषोऽन्ते ततः स्वर्गं गन्तारः स्थ द्विजोत्तमाः प्रक्रिया प्रथमः पादः कथावस्तुपरिग्रहः । अनुषङ्ग उपोद्धात उपसंहार एव च एवमेतच्चतुष्पादं पुराणं लोकसंमतम् | उवाच भगवान्साक्षाद्वायुर्लोकहिते रतः नैमिषे सत्रमासाद्य मुनिभ्यो मुनिसत्तमाः । तत्प्रसादादसंदिग्धं भूतोत्पत्तिलयानि च प्राधानिकीमिमां सृष्टि तथैवेश्वरकारिताम् । सम्यग्विदित्वा मेधावी न मोहमधिमच्छति ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ समस्त भूत चय एक ही साथ उत्पन्न होते हैं, वे हो इन्द्रियों के नाम से भी विख्यात हैं | उन भूत समूहों से अन्यान्य भूत भेदो की उत्पत्ति होती है इस प्रकार सृष्टि का प्रवर्तन होता है । हे ऋषिवृन्द ! सृष्टि को यह कथा परम 'विस्तृत एवं महान् है | मेरी जैसी कुछ बुद्धि थी, जैसा मैंने सुना था, वैसा आप लोगो के सम्मुख बतला चुका, उसे उक्त प्रकार से ही समझिए । नैमिषारण्यवासी महर्षियों ने सूत से लोक को स्थिति उत्पत्ति, एवं विनाश की उक्त वार्ता सुनने के उपरान्त उस घीर्घकालीन यज्ञ में अवभृथ स्नान किया और पुण्य लोकों को प्राप्त किया। उसी प्रकार आप लोग भी विधिपूर्वक देवादि की पूजा अर्चा कर, यज्ञान्त में अवभृथ स्नान से शुद्धि लाभ कर, दीर्घायु के उपभोग के उपरान्त शरीरों को छोड़कर पुण्यप्रद लोकों को प्राप्त करोगे और वहां कृतकृत्य होकर यथेच्छ विहार करोगे यज्ञकर्ता नैमिषारण्यवासी महर्षियों ने जिस प्रकार यज्ञादि का अनुष्ठान कर, प्रजाओं की सृष्टि कर, यज्ञस्नान में अवभृथ स्नान के उपरान्त स्वर्ग को प्राप्त किया था उसी प्रकार द्विजवर्यवृन्द ! तुम लोग भी अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर स्वर्ग को प्राप्त करोगे |३६-४३। कथा वस्तुपरिग्रहात्मक (वयं विषयों की सूची) प्रक्रिया, मनुषङ्ग, उपोद्घात एवं उपसंहार इन चार पादों से उपबृंहित लोक सम्मत इस महापुराण को लोक कल्याण में निरत साक्षात् भगवान् वायु ने यज्ञ के प्रसङ्ग मे मुनियों से कहा था । उन्हीं की कृपा से प्राप्त, इस असन्दिग्ध भूतो की उत्पत्ति एवं विनाश की कथा से युक्त लोक की प्रधान सृष्टि एवं ईश्वर कारिता को भली भांति जानकर मेधावी पुरुष मोह वश नही होता ॥४४-४७। जो विद्वान् ब्राह्मण इस पुरातन इतिहास को सुनता है या दूसरों को सुनाता है,