पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६२

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः शरीरं प्रजहं ( हत्) सो वै निरुच्छ्वासस्ततो भवेत् । एवं प्राणः परित्यक्तो मृत इत्यभिधीयते यथेह लोके खद्योतं नीयमानमितस्ततः । रञ्जनं तद्वधे यत्तु नेता नेता न विद्यते तृष्णाक्षयस्तृतीयस्तु व्याख्यातं मोक्षलक्षणम् । शब्दाद्ये विषये दोषविषये पञ्चलक्षणे अप्रद्वेषोऽनभिष्वङ्गः प्रीतितापविवर्जनम् । वैराग्यकारणं ह्येतत्प्रकृतीनां लयस्य च अष्टौ प्रकृतयो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता वै यथाक्रमम् । अव्यक्ताद्यास्तु विज्ञेया भूतान्ताः प्रकृतेर्लयाः वर्णाश्रमाचारयुक्ताः शिष्टाः शास्त्रविरोधिनः । वर्णाश्रमाणां धर्मोऽयं देवस्थानेषु कारणस् ब्रह्मादीनि पिशाचान्तान्यष्टौ स्थानानि देवताः । ऐश्वर्यमणिमाद्यं हि कारणं ह्यष्टलक्षणम् निमित्तमप्रतीघात इण्टे शब्दादिलक्षणे | अष्टावेतानि रूपाणि प्राकृतानि यथाक्रमम् क्षेत्रज्ञेष्वनुषज्यन्ते गुणमात्रात्मकानि तु । प्रावृट्काले पृथक्त्वेन पश्यन्तीह न चक्षुषा पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा । श्वाविति श्वानपानश्च ( ? ) योनीः प्रविशतस्तथा ॥१०० ॥ १०४५ ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ हिद शरीर अन्त में मृतक नाम से पुकारा जाता है । जैसे इस लोक मे खद्योत को इधर-उधर ले जाने वाला भी प्रकाशमान होता है और खद्योत के मर जाने पर वह भी नहीं दिखाई पड़ता वही दशा प्राणों की और शरीर की है। तृष्णा का विनाश होना ही तीसरा मोक्ष का लक्षण कहा गया है । शब्दादिक पांच दोषादि विषयों से द्वेष एवं अतिशय आसक्ति का न रखना प्रीति एवं सन्ताप से वर्जित रहना हो वैराग्य एवं प्रकृति के विलय का कारण कहा गया है।८६-९४१ पूर्व कथित आठों प्रकृतियों को यथा क्रम जानना चाहिये, जो अव्यक्त से लेकर पाँचों महाभूतो तक कही जाती है, यही आठ प्रकृति के लय हैं। शास्त्र से विरोध (न) करनेवाले वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुयायी शिष्ट कहे जाते हैं, वर्णाश्रम व्यवस्था के धर्मशासन देवस्थानों को प्राप्ति के कारण भूत हैं । ब्रह्मा से लेकर पिशाचों तक आठ देवयोनियां कही जाती हैं, अणिमा आदि ऐश्वर्यदायिनी सिद्धियाँ भी आठ हैं। अभिमत शब्दादिक पदार्थों में प्रतिघात जन्य दुःखानुभूति उन स्थानों में रहने वालो को नहीं होती । वे प्रकृति जन्य गुणमात्रात्मक आठ प्रकार के स्वरूप क्षेत्रज्ञों में क्रमानुसार अवसक्त होते है । वर्षाकाल में जिस प्रकार आकाश मण्डल में अवस्थित मेघों में तद्गत जलादि पदार्थों को लोग चर्मचक्षु से नहीं देख सकते केवल अनुमानादि द्वारा ही उसका ज्ञान प्राप्त करते है, उसी प्रकार सिद्ध लोग जीवात्मा को अपने दिव्य नेत्रो से देखते हैं, सामान्य लोग जीव को नहीं देख सकते । वह जीवात्मा द्विजाति उच्च योनियों से लेकर श्वानो को बॉघनेवाले चाण्डालों तक की योनियों में प्रवेश करता है, इस प्रकार ऊर्ध्वं, अधः, तिर्थक्, समस्त योनियों में वह यथाक्रम अपने कर्मों के अनुसार धावन करता रहता है । जीव, फा०- १३१