पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६३

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१०४३ वायुपुराणंम् तिर्यगूर्ध्व मधस्ताच्च धावतोऽपि यथाक्रमम् | जीवमाणास्तथा लिङ्गं कारणं च चतुष्टयम् पर्यायवाचकैः शब्दैरेफार्थैः सोऽभिलिख्यते । व्यक्ताव्यक्ते प्रमाणोऽयं स वे रूपं तु कृत्स्नशः अव्यक्तान्तगृहीतं च क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं च यत् । एवं ज्ञात्वा शुचिर्भूत्वा ज्ञानाद्वै विप्रमुच्यते नष्टं चैव यथा तत्त्वं तत्त्वानां तत्त्वदर्शनम् | यथेष्टं परिनिर्धाति भिन्ने देहे सुनिर्वृ ते भिद्यते करणं चापि अव्यक्ताजानिनस्तथा । मुक्तो गुणशरीरेण प्राणाद्येन तु सर्वशः नान्यच्छरीरमादत्ते दग्धे बीजे यथाऽङ्कुरः | जीविकः सर्वसंसाराद्वीजशारीरमानसः ज्ञानाच्चतुर्दशाच्छुद्धः प्रकृति सोऽनुवर्तते । प्रकृति सत्यमित्याहुविकारोऽनृतमुच्यते तत्सद्भावोऽनृतं ज्ञेयं सद्भावः सत्यमुच्यते । अनामरूपक्षेत्रज्ञनामरूपं प्रचक्षते अस्मात्क्षेत्रं विजानाति तस्मात्क्षेत्रज्ञ उच्यते । क्षेत्रप्रत्ययतो यस्मात्क्षेत्रज्ञः शुभ उच्यते क्षेत्रज्ञः स्मयंते तस्मात्क्षेत्रं तज्जैविभाव्यते । क्षेत्रत्वप्रत्ययं दृष्टं क्षेत्रज्ञः प्रत्ययी सदा क्षयणात्करणाच्चैव क्षतत्राणात्तथैव च | भाज्यत्वाद्विषयत्वाच्च क्षेत्रं क्षेत्रविदो विदुः ॥१०१ ॥१०२ ॥१०३ ।१०४ ॥१०५ ।।१०६ ।।१०७ ॥१०८ ॥१०६ ॥११० ॥१११ प्राण, लिङ्ग कारण प्रभृति पर्यायवाची शब्दों द्वारा जो सब एक ही अर्थ के द्योतक हैं, वह उल्लिखित होता है | व्यक्त अव्यक्त सर्वत्र जगत् में वह प्रमाण स्वरूप । क्षेत्रज्ञ द्वारा अधिष्ठित अव्यक्तान्तः पाति समस्त जगत् के इन समस्त कारणों को भली भाँति अवगत कर लेने पर प्राणी प्रवित्र हो जाता है और उसे लोग विप्र की उपाधि देते हैं ।६५ - १०३। जगत् के इन समस्त कारणों एवं तत्त्वों को भली भाँति देख लेने पर जीवात्मा यथेष्ट रूप से सुखपूर्वक शरीर छोड़ने पर बहिर्गत होता है | अव्यक्तादि के ज्ञान होने के कारण प्राणी के अन्य जम्मादि के कारणों का विनाश हो जाता है, गुणों के परिणामों से वह मुक्त हो जाता है, और इस प्रकार शान्तिपूर्वक प्राणादि के परित्याग के अनन्तर वह शरीर एवं मानस कर्म सूत्रों के सर्वथा विनष्ट हो जाने पर अन्य शरीर भी नही धारण करता, ठीक उसी तरह जैसे बोज के भस्म हो जाने के बाद अड्कुर का उद्गम नही होता | चौदह प्रकार के ज्ञानों से सुपरिचित होकर वह शुद्धात्मा प्रकृति का अनुवर्तन करता है । विद्वान् लोग षेवल प्रकृति को ही सत्य बतलाते हैं, विकारों का उनकी दृष्टि मे मिथ्यात्व सिद्ध हो चुका है। जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, वह असत्य अथवा मिथ्या है, सद्भाव सत्य कहा जाता है, क्षेत्रज्ञ नाम एवं रूप से रहित है। किन्तु नाम और रूप की परम्परा उसी से चलती कही जाती है। क्षेत्र के जानने के कारण उसकी क्षेत्रज्ञ की उपाधि है । उस क्षेत्र का भली भांति प्रत्यय ( अधिगम) कर लेने के कारण क्षेत्रज्ञ मङ्गलदायी कहा जाता है ।१०४-१०६। जीवगण इसलिये उस मंगलकारी क्षेत्रज्ञ का स्मरण करते हैं, क्षेत्र की भावना केवल क्षेत्रज्ञों द्वारा होती है। यह क्षेत्र प्रत्यय है, क्षेत्रज्ञ सर्वदा उसका प्रत्यायी है । क्षय, करण, क्षतत्राण, भोज्य, एवं विषयत्व के