पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६१

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Go४० वायुपुराणम् ॥८४ निमित्तमप्रतीघात इष्टशब्दादिलक्षणे । अष्टावेतानि रूपाणि प्राकृतानि यथाक्रमम् क्षेत्रज्ञेष्वव सज्यन्ते गुणमात्रात्मकानि तु । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वैराग्यं दोपदर्शनात् दिव्ये च मानुषे चैव विषये पश्चलक्षणे | अप्रद्वेषोऽनभिष्वङ्गः कर्तव्यो दोषदर्शनात् तापप्रीतिविषादानां कार्यं तु परिवर्जनम् । एवं वैराग्यमास्थाय शरीरी निर्ममो भवेत् अनित्यम शिवं दुःखमिति बुद्ध्वाऽनुचिन्त्य च । विशुद्धं कार्यकरणं सत्त्वाभ्येति चरान्तुय ( ? ) ॥८५ परिपक्वकषायो हि कृत्स्नान्दोषान्प्रपश्यति । ततः प्रयाणकाले हि दोपैनैमित्तिकैस्तथा ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमोरितः । स शरीरमुपाश्रित्य कृत्स्नान्दोषान्रुणद्धि वै प्राणस्थानानि भिन्दन्हि च्छिन्दन्मर्माण्यतीत्य च | शैत्यात्प्रकुपितो वायुरूर्ध्वं तु क्रमते ततः स चायं सर्वभूतानां प्राणस्थानेष्ववस्थितः । समासात्संवृते ज्ञाने संवृतेषु च कर्मसु ॥८६ ॥८७ ॥८८ ॥८६ स जीतोऽनभ्यधिष्ठानः कर्मभिः स्वैः पु॒राकृतैः । अष्टाङ्गप्राणवृत्तीवें स विच्यावयते पुनः Iεº ॥८१ ॥८२ ॥८३ एवं निरञ्जनत्व से परम शुद्धत्व की प्राप्ति होती है, उस विशेष मोक्षावस्था में जीव को किसी मार्ग प्रदर्शक को आवश्यकता नहीं रहती। तृतीय मोक्ष तृष्णा का सर्वतोभावेन अभाव होना है, तृष्णा का यह सर्वथा विनाश मोक्ष का मूल कारण है। अभिमत शब्दादिकों में प्रतिघातजन्य दुःखानुभूति मुक्तात्माओं को नहीं होती, ये आठ प्रकृति जन्य रूप, जो गुण मात्रात्मक कहे जाते हैं, क्षेत्रज्ञों मे क्रमानुरूप अवसक्त होते हैं । अव उसके उपरान्त दोष दर्शन के कारण वैराग्य का लक्षण बतला रहा हूँ । पाँच प्रकार के दिव्य एवं मानुप विषयादिकों में अनासक्ति एवं द्वेषाभाव का व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि इनमें दोष के दर्शन होते हैं । सन्ताप, प्रीति एवं विषाद को वर्जित करना चाहिये । इस प्रकार इन्हे छोड देने पर शरीरी सांसारिक पदार्थों मे ममत्व रहित हो जाता है |७६ ८४ | यह संसार अनित्य है, अमंगलकारी है, दुखदायी है, - ऐसा सोचकर कार्य एवं कारणों के विशुद्ध तत्त्व को जानकर ही विज्ञों को चित्त के कपाय को तरह परिपक्व हो जाने पर समस्त दोषों का दर्शन होता है। जिससे महाप्रयाण काल मे नैमित्तिक दोपों के कारण शरीर मे तीव्र वायु से प्रेरित ऊष्मा का प्रकोप होता है । और वह शरीर में रहनेवाले समस्त दोषो को रोकता है प्राणो के स्थानों का भेदन एवं मर्म स्थलों का छेदन करता हुआ शीतलता से अधिक प्रवृद्ध वायु ऊर्ध्वगामी होता है |८५-८८ समस्त जीवधारियों के प्राण स्थलों मे अवस्थित वायु को यही दशा अन्त समय मे होती है । संक्षेप में समस्त चेतना एवं कृतकर्मों के संकुचित हो जाने पर वह जीव स्वकृत पूर्व कर्मों के साथ शरीर से अपनी स्थिति विच्छिन्न कर लेता । आठो अङ्गों से प्राण की समस्त वृत्तियाँ छूट जाती हैं। इस प्रकार शरीर छोड़ता हुआ जीवात्मा श्वास रहित दशा में हो जाता है । और समस्त प्राणों से विहीन होकर वह