पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६०

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः एष मार्गो हि निरधितिर्यग्योनौ च कारणम् । तिर्यग्योनिगतं चैव कारणं स निरुच्यते विविधा यातना स्थाने तिर्यग्योनो च षड्विधे । मारणे विषये चैव प्रतिधातस्तु सर्वशः अनैश्वर्यं तु तत्सर्वं प्रतिघातात्मकं स्मृतम् । इत्येषा तामसी वृत्तिर्भूतादीनां चतुविधा सत्त्वस्थमात्रकं चित्तं यथा सत्त्वप्रदर्शनात् । तत्त्वानां च तथा तत्त्वं दृष्ट्वा वै तत्त्वदर्शनात् सत्त्वक्षेत्रज्ञनानात्वमेतज्ज्ञानार्थदर्शनम् | नानात्वदर्शनं ज्ञानं ज्ञानाद्वैयोगमुच्यते तेन बद्धस्य वै बन्धो मोक्षो मुक्तस्य तेन च । संसारे विनिवृत्ते तु मुक्तो लिङ्गेन सुच्यते निःसंवन्धो ह्यचैतन्यः स्वात्मन्येवावतिष्ठते । स्वात्मव्यवस्थितश्चापि विरूपाख्येन लिख्यते इत्येतल्लक्षणं प्रोक्तं समासाज्ज्ञानमोक्षयोः । स चापि त्रिविधः प्रोक्तो मोक्षो वै तत्त्वदशिभिः पूर्वं वियोगो ज्ञानेन द्वितीयो रागसंक्षयात् । लिङ्गाभावात्तु कैवल्यं कैवल्यात्तु निरञ्जनम् निरञ्जनत्वाच्छुद्धस्तु ततो नेता न विद्यते । तृष्णाक्षयात्तृतीयस्तु व्याख्यातं मोक्षकारणम् १०३८ ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ ॥७७ ॥७८ ॥७६ 11८० वर्णाश्रमधर्म विरोधी एवं शिष्टानुमोदित शास्त्रों से विपरीत है। यह एक अज्ञान पथ अस्थिर एवं तिर्थक् योनि में जन्म देने का कारण है | तिर्यक् योनिगत कारण यह कहा जाता है। उस तिर्यक् योनि में जन्म लेने से जो यातनाएं अनुभव करनी पड़ती है, उससे भी अधिक विविध प्रकार का कष्ट इस अज्ञान से मिलता है। छः प्रकार के कारणों एवं विषय में तथा तिर्यक् योनियों मे जो भी यातनाएँ जीवों को अनुभव करनी पड़ती है, वे कामनाओं के प्रतिघात से उत्पन्त होती हैं। वह सारी असफलता एवं ऐश्वर्य की न्यूनता इच्छाओ के प्रतिधात होने से ही उत्पन्न कही जाती है । भूतादिको की ये चार प्रकार की तामसी वृत्तियाँ कही गई है । सात्विक भावनाओं के प्रदर्शन होने से चित्त को सत्त्व प्रधान माना जा सकता है, तत्त्वों के यथावत् अनु- दर्शन एवं विचार से तत्त्वों के रहस्य ज्ञान से, सत्त्व और क्षेत्रज्ञ का नानात्व ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान कहा जाता है । ज्ञान से ही योगोत्पत्ति होती है- ऐसा लोगों का कहना है १७०-७५। उसी (संसार) से बँधे रहने पर वास्तव बन्धन एवं उसी से मुक्त रहने पर वास्तविक मुक्ति होती 1 संसार से विनिवृत्त हो जाने पर जव मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है तव प्राणी लिङ्ग शरीर से भी मुक्त हो जाता है। उस मुक्तावस्था में जीव का किसी से भी कुछ सम्बन्ध नहीं रहता । उसको एक अचैतन्यावस्था रहती है, केवल आत्मनिष्ठ वह रहता है । जीव को इस विशेष अवस्था को, जब वह केवल आत्मस्थ रहता है, विरूप कहा जाता है । संक्षेप मे मैंने ज्ञान एवं मोक्ष का परिचय आप लोगो को कराया है, तत्व द्रष्टा लोग इस मोक्ष को तीन प्रकार का वतलाते है |७६-७८। उनमें प्रथम मोक्ष ज्ञान वल से सांसारिक विषय वासनाओं से वियोग होना कहा जाता है। दूसरा मोक्ष, राग द्वेषादि का निर्मूलन होना है, जिससे लिंगाभाव दशा में जीव को कैवल्य की प्राप्ति होती है, कैवल्य से निरञ्जनत्व