पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

वायुपुराणम् रागद्वेषनिवृत्तिश्च तज्जानं समुदाहृतम् । अज्ञानं तमसो मूलं कर्मद्वयफलं रजः ॥ कर्मजस्तु पुनर्देहो महादुःखं प्रवर्तते श्रोत्रजा नेत्रजा चैव त्वग्जिव प्राणतस्तथा । पुनर्भवकरी दुःखा कर्मणां जायते तु सा सतृष्णोऽभिहितो बालः स्वकृतैः कर्मणः फलैः । तैलपालीकवज्जीवस्तत्रैव परिवर्तते तस्मात्स्थूलमनर्थानामज्ञानमुपदिश्यते । तं शत्रुमवधायकं ज्ञाने यत्नं समाचरेत् ज्ञानाद्धि त्यज्यते सर्व त्यागाद्बुद्धिविरज्यते । वैराग्याच्छुध्यते चापि शुद्धः सत्त्वेन मुच्यते अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि रागं भूतापहारिणम् । अभिषङ्गाय यो यस्माद्विषयोऽप्यवशात्मनः अनिष्टमभिषङ्गं हि प्रोतितापविषादनम् । दुःखलाभेन तापश्च सुखानुस्मरणं तथा इत्येष वैषयो रागः संभूत्या कारणं स्मृतम् | ब्रह्मादौ स्थावरान्ते वै संसारे ह्याधिभौतिके || अज्ञानपूर्वकं तस्मादज्ञानं तु विवर्जयेत् यस्य चाडर्षं न प्रमाणं शिष्टाचारं तथैव च । वर्णाश्रमविरोधी यः शिष्टशास्त्रविरोधकः १०३८ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० धारण करना पड़ता है, जिससे महादुःख की प्राप्ति होती है ।६०-६२। कान से, नेत्र से, चमड़े से, जीभ से, और नाक से पुनर्जन्म के कारणभूत कर्मों का जन्म होता है। अपने-अपने किये गये कर्मों के फल से ही अज्ञ जीव की इन्द्रियों द्वारा उपभोग्य विपयों की तृष्णा में फँसकर दुःखों का अनुभव करना पड़ता है । वह तेलो के बैल के समान उन्ही विषयों में बार-बार चक्कर काटता रहता है। इसी कारण से समस्त अनर्थो के मूल भूत अज्ञान से बचने का उपदेश किया जाता है । उसे अपना शत्रु समझकर मनुष्य को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये । ज्ञान द्वारा ही समस्त अज्ञानों से मुक्ति मिलती है । अज्ञान त्याग से सांसा- रिक विषय वासनाओ से विराग होता है। वैराग्य से मन को शुद्धि होती है और मनः शुद्धि से सात्त्विक भावनाओं का उदय होता है, जिसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति होती है। अब इसके उपरान्त समस्त प्राणियों को अज्ञान में डालने वाले राग के विषय मे वतला रहा हूँ । इसी राग के कारण प्राणिसमूह अवश होकर विषय वासनाओं से निवद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार के अनुराग से ही प्रीति, ताप, एवं विपाट का जन्म होता है | मनोभिलषित वस्तु की प्राप्ति मे वाधा पडने से दुःख होता है, उसके रात दिन के अनुस्मरण से सुख का अनुभव होता है । यह सब विषयगत राग है, जो सब की उत्पत्तिका कारण कहा जाता है। ब्रह्मा से लेकर स्थावर जीव निकाय जितने है. वे सब इस आधिभौतिक जगत् मे इसी अज्ञान मूलक विषयों के प्रति अनुराग रखने से जन्म ग्रहण करते हैं । इस लिये इस अज्ञान से सर्वथा बचे रहना चाहिये १६३-६६। ऋषियो के कहे ये मत एव शिष्टजनों द्वारा आचरित कर्म समूह उक्त अज्ञान के अनुकूल नहीं है, यह अज्ञान वास्तव मे