पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५८

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः सुचेतना: प्रलीयन्ते क्षेत्रज्ञाधिष्ठिता गुणाः । सर्गे च प्रतिसर्गे च संसारे चैव जन्तवः ॥ संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते करणः संचरन्ति च ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ राजसी तामसी चैव सात्त्विकी चैव वृत्तयः । गुणमात्राः प्रवर्तन्ते पुरुषाधिष्ठितास्त्रिधा ऊर्ध्वं देवात्मकं सत्त्वमधोभागात्मकं तमः । तयोः प्रवर्तकं मध्य इहैवाऽऽवर्तकं रजः इत्येवं परिवर्तन्ते त्रयः श्रोतोगुणात्मकाः । लोकेषु सर्वभूतानां तन्न कार्य विजानता अविद्याप्रत्ययारम्भा आरभ्यन्ते हि मानवैः । एतास्तु गतयस्तिस्त्रः शुभाः पापात्मिकाः स्मृताः ॥५७ तमसाऽभिभवाज्जन्तुर्याथातथ्यं न विन्दति । अतत्त्वदर्शनात्सोऽथ त्रिविधं वध्यते ततः प्राकृतेन च बन्धेन तथा वैकारिकेण च । दक्षिणाभिस्तृतीयेन बद्धोऽत्यन्तं विवर्तते इत्येते वै त्रयः प्रोक्ता बन्धा ह्यज्ञानहेतुकाः | अनित्ये नित्यसंज्ञा च दुःखे च सुखदर्शनस्

  • अस्वे स्वमिति च ज्ञानमशुचौ शुचिनिश्चयः । येषामेते मनोदोषा ज्ञानदोषा विपर्ययात्

॥५८ ॥५६ १०३७ ·. ॥६० ॥६१ सुचेतन गुण समुदाय सृष्टि की और संहारदशा में अपने-अपने कारणों द्वारा संयुक्त, वियुक्त और संचरणशील होते हैं |४८-५३१ समस्त पुरुषों में अघिष्ठित राजसी, तामसी एवं सात्त्विकी – ये तीन गुणमात्र वृत्तियाँ प्रवर्तित होती हैं । ऊर्ध्व भाग देवात्मक एवं सत्त्वगुण सम्पन्न है, अधोभाग तमोगुणमय दोनों का मध्यवर्ती एवं प्रर्वतक भाग रजोगुणमय इस लोक प्रापक है । समस्त त्रैलोक्य में सर्व जीवों के भीतर यही तोन भाव परिवर्तित होते रहते हैं। ज्ञानी पुरुष को लोक में समस्त जीवों के इन विविध स्वभावों की पर्यालोचना नहीं करनी चाहिये । मानव अविद्या वश विविध प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान कर शुभ, पाप एवं मध्यात्मक तीन गतियों को प्राप्त करता है । जन्तुगण तमो गुण में आबद्ध होकर यथार्थ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करने से वंचित रह जाते हैं । और इस प्रकार तत्त्वों के अदर्शन के कारण तीन प्रकार के बन्धनों से आवद्ध होते हैं। प्रथम प्राकृत बन्धन, द्वितीय वंकारिक बन्धन और तृतीय दक्षिणात्मक बन्धन — इन तीनों से अतिशय आबद्ध होकर जन्तुगण दुःख का अनुभव करते हैं । ये तीनों अज्ञानमूलक बन्धन कहे जाते है | ५४ - ५९३ | अनित्य पदार्थों में नित्यता का दर्शन, दुःख में सुख का दर्शन, परकीय वस्तु में निजत्व का दर्शन, अपवित्र में पवित्रता का दर्शन, जिनके मन में ऐसे दोष रहते हैं, उनके विपर्यय वश ज्ञान में भी दोष हो जाते हैं। राग और द्वेष से पूर्ण निवृत्ति का होना ही ज्ञान कहा जाता है। ऐसे ज्ञान का अभाव तमोगुण का मूल है, शुभ एवं अशुभ कर्मों का प्रेरक रजोगुण है । कर्मों से पुनः शरीर नास्त्ययं श्लोकः ख. पुस्तके |