पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५७

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१०३६ वायुपुराणम् पृथगज्ञानेन क्षेत्रज्ञास्ततस्ते ब्रह्मलौकिफाः । प्रकृतौ करणातीताः सर्वे नानाप्रदशनाम् स्वात्मन्येवावतिष्ठन्ते प्रशान्ता दर्शनात्मकाः | शुद्धा निरञ्जनाः सर्वे चेतनाचेतनास्तथा तत्रैव परिनिर्वाणाः स्मृता नाऽऽगामिनस्तु ते । निर्गुणत्वान्निरात्मानः प्रकृत्यन्ते व्यतिक्रमात् इत्येवं प्राकृतः प्रोक्तः प्रतिसर्गः स्वयंभुवः । भिद्यन्ते सर्वभूतानां करणानि प्रसंयमे इत्येष संयमश्चैव तत्त्वानां करणैः सह । तत्त्वप्रसंयमो ह्येष स्मृतो ह्यावर्तको द्विजाः सूत उवाच धर्माधर्मो तपो ज्ञानं शुभे सत्यानृते तथा | उर्ध्वभावो ह्यधोभावो सुखदुःखे प्रियाप्रिये सर्वमेतत्प्रयातस्य गुणमात्रात्मकं स्मृतम् । निरिन्द्रियाणां च तदा ज्ञानिनां यच्छुभाशुभम् प्रकृत्यां चैव तत्सर्वं पुण्यं पापं प्रतिष्ठति । योन्यवस्था स्वभावे च देहिनां तु निषिच्यते जन्तूनां पापपुण्यं तु प्रकृतौ यत्प्रतिष्ठतम् । अव्यक्तस्थानि तान्येव पुण्यपापानि जन्तवः ॥ योजयन्ति पुनर्वेहे देहान्यत्वे तथैव च 1 धर्माधर्मों तु जन्तूनां गुणमात्रात्मकावुभौ । करणैः स्वैः प्रचीयेते कायत्वेनेह जन्तुभिः ॥४३ ॥४४ ।।४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ पृथक् क्षेत्र ज्ञान युक्त होने के कारण ही क्षेत्रज्ञ कहे जाते है | वे सब प्रकृतिगत सभी कारणों से परे है और उन सब के नानात्व के देखने वाले है । चेतनाचेतनात्मक, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, निरञ्जन, प्रकृति में निर्वाण प्राप्त करनेवाले एवं पुनः कभी लौटकर आनेवाले नहीं है अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता । प्रकृति निर्गुण और निरात्म होने के कारण वे क्षेत्रज्ञगण मुक्त हो जाते है उनका पुनः आगमन (जन्म) नहीं होता | स्वयम्भू का प्राकृत प्रतिसर्ग इसी प्रकार का कहा जाता है । सभी भूतों के कारणसमूह प्रकृति के इस गुण-संयम में भिन्न-भिन्न हो जाते हैं | तत्त्वों का करणों के साथ इसी प्रकार का संयम है। द्विजवृन्द ! यह तत्त्वप्रसंयम आवर्तनशील कहा जाता है ।४३-४७। सूत बोले- ऋषिवृन्द ! धर्म अधर्म, तप, ज्ञान, सत्य, झूठ, ऊर्ध्व, अघः, सुख, दुःख, प्रिय अप्रिय • ये सब गुणमात्रात्मक कहे जाते हैं । इन्द्रियों से परे अर्थात् जितेन्द्रिय ज्ञान सम्पन्न प्राणियों के जो कुछ भी शुभाशुभ पुण्य पापात्मक कर्म हैं, वे सच प्रकृति वश प्रतिष्ठित हैं। प्राणघारी जन्तुओं के जो कुछ भी पुण्य पापादि कर्म प्रकृति में प्रतिष्ठित रहते हैं । प्रकृति हो उन देहधारियों के स्वभाव की उत्पत्ति- स्थली है । अव्यक्त प्रकृति में प्रतिष्ठित जन्तुओं के पुण्यपापादि कर्म समूह अन्य शरीर धारण करने पर पुन: संयुक्त हो जाते हैं । देहधारियों के धर्म और घमं • ये दो गुणमात्रात्मक हैं। कार्य दशा में अपने-अपने कारणों द्वारा देहधारी के स्वभाव में वृद्धि प्राप्त करते हैं । इस जगत् में क्षेत्राधिष्ठित