पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५६

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः सृजते ग्रसते चैव विकारान्सर्गसंयमे | सांसिद्धकार्यकरणाः संसिद्धा ज्ञानिनस्तु ये गत्वा जवं जवीभावे स्थानेष्वेषु प्रसंयमात् । प्रत्याहारे क्युिज्यन्ते क्षेत्रज्ञाः करणैः पुनः अव्यक्तं क्षेत्रमित्याहुर्ब्रह्म क्षेत्रज्ञ उच्यते । साधर्म्यवैधर्म्यकृतः संयोगोऽनादिमांस्तयोः एवं सर्गेषु विज्ञेयं क्षेत्रज्ञेष्विह ब्राह्मणाः । ब्रह्मविच्चैव विज्ञेयः क्षेत्रज्ञानात्पृथक्पृथक् विषयाविषवत्वं च क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः स्मृतम् | ब्रह्मा तु विषयो ज्ञेयोऽविषयः क्षेत्रमुच्यते क्षेत्रज्ञाधिष्टितं क्षेत्रं क्षेत्रज्ञार्थं प्रचक्षते । बहुत्वाच्च शरीराणां शरीरो बहुधा स्मृतः अव्यूहासंकाराच्चैव ज्योतिर्वच्च व्यवस्थित । यस्मात्प्रतिशरीरं हि सुखदुःखोपलब्धिता ॥ तस्मात्पुरुषनानात्वं विज्ञेयं तु विजानता यदा प्रवर्तते चैषां भेदानां चैव संयमाः | स्वभावकारिताः सर्वे कालेन महता तदा निवर्तते तदा तस्य स्थितिरागः स्वयंभुवः | सहसा योज्यकैः सर्वैर्ब्रह्मलोकनिवासिभिः विनिवृत्ते तदा रागे स्थितावात्मनिवासिनाम् । तत्कालवासिनां तेषां तदा तद्दोषदर्शिनाम् उत्पद्यन्तेऽथ वैराग्यमात्मवादप्रणाशनम् | भोज्यभोक्तृत्वनानात्वे तेषां तद्भावदशनाम् १०३५ ॥३२ ॥ ३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ निर्माण करती है। समस्त कार्य और कारणों को अधिगत करनेवाले जो परम ज्ञानी एवं सिद्ध लोग हैं वे इन स्थानो पर अपने प्रकृष्टसंयम से इस संहारकालीन आकर्पण में स्वयं द्रुतगति से आकृष्ट हो प्रत्याहारकाल में वे क्षेत्रज्ञ करणों से पुनः वियुक्त हो जाते हैं । अव्यक्त हो को क्षेत्र कहा जाता है, और ब्रह्म क्षेत्रज्ञ कहा जाता है | इन दोनों का साधर्म्य एवं वैधर्म्यं मूलक संयोग अनादिकाल से चला आ रहा है | २५-३४७ विप्र वृन्द ! समस्त सर्गों में (सृष्टि में ) क्षेत्रज्ञों के विषय में यही विशेषता (क्रम) जाननी चाहिये | जो पृथक्-पृथक् रूप में इस क्षेत्र का (ज्ञान) तत्त्व जानता है उसो को ब्रह्मज्ञानी (क्षेत्रज) जानना चाहिये । क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का विषयत्व एवं अविषयत्व प्रसिद्ध है, ब्रह्मा को विषय एवं क्षेत्र को अविषय जानना चाहिये । क्षेत्र क्षेत्रज्ञ द्वारा अधिष्ठित है, उसको उपयोगिता क्षेत्रज्ञ के लिये कही जाती है। शरीर के आधिक्य के कारण शरीरी भी अनेक कहे जाते हैं | ३५ - ३७ | किन्तु ये ज्योतिर्मय पदार्थ की भाँति असम्बद्ध और असंकर रहते हैं। प्रत्येक शरीर में सुख दुःख दोनों को उपलब्धि होती है, अतः ज्ञानी लोग पुरुष को अनेक मानने हैं। बहुत काल व्यतीत हो जाने पर प्रकृतिवश जब सब के भेद को प्रवृत्ति का संयम घटित होता है तब स्वयम्भू को स्थितिबुद्धि निवृत्त हो जाती है । और उस समय समस्त ब्रह्मलोक निवासी सहसा अपनी-अपनी स्थितिवृत्ति में दोष देखकर वैराग्य युक्त हो जाते हैं। जिससे उनके आत्म वादात्मक अहंकार का सर्वथा विनाश हो जाता है । भौग्य एवं भोक्तापन के ज्ञान से रहित होकर वे नानात्व के दर्शनाभाव से प्रशान्त होकर आत्मा में अवस्थित होते हैं |३८-४२१ वे समस्त ब्रह्मलोक निवासी पृथक्- }