पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५५

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१०३४ वायुपुराणम् बुद्धिर्मतश्च लिङ्गच महानक्षर एव च । पर्यायवाचकैः यशव्दस्त माहुस्तत्त्वचिन्तकाः संप्रलोनेषु भूतेषु गुणसाम्ये तमोमये । स्वात्मन्येव स्थिते चैव कारणे लोक कारणे विनिवृत्ते तदा सर्गे प्रकृत्याऽवस्थितेन वै । तदाऽऽद्यन्तपरोक्षत्वाददृप्टत्वाच्च कस्यचित् अनाख्यानादेबाधत्वादज्ञानोज्ज्ञानिनामपि । आगतागतिकत्वाच्च ग्रहणं तन्त्र विद्यते भावग्राह्यानुमानाच्च चिन्तयित्वेदमुच्यते । स्थिते तु कारणे तस्मिन्नित्ये सदसदात्मिके अनिर्देश्या प्रवृत्तिर्वै स्वात्मिका कारणेन तु । एवं सप्तादयोऽभ्यस्तात्क्रमात्प्रकृतयस्तु वै प्रत्याहरे तदा सर्गे प्रविशन्ति परस्परम् | येनेदमावृतं सर्वमण्डनप्सु प्रलीयते सप्तद्वीपसमुद्रान्तं सप्तलोको सपर्वतम् । उदकावरणं यच्च ज्योतिषां लीयते तु तत् यत्तैजसं चाऽऽवरणमाकाशं ग्रसते तु तत् । यद्वायव्यं चाऽऽवरणमाकाशं ग्रसते तु तत् आकाशावरणं यच्च भूतादिर्ग्रसते तु तत् । भूतादि ग्रसते चापि महान्वै बुद्धिलक्षण: महान्तं ग्रसतेऽव्यक्तं गुणसाम्यं ततः परम् । एतौ संहारविस्तारौ ब्रह्माऽवतात्ततः पुनः ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ है । इस प्रकार जब सभी भूत विलीन हो जाते हैं, गुणों में साम्य हो जाता है, समस्त जगत् तमोमय हो जाता है, लोक के कारणभूत कारणसमूह आत्मस्थित हो जाते है, सृष्टि निवृत्त होकर प्रकृति मे अवस्थित हो जाती है, तव आदि अन्त किसी का कुछ पता नहीं लगता, कुछ दिखाई नहीं पड़ता, किसी का कुछ नाम रूप शेष नही रह जाता, जिससे ज्ञान सम्पन्न को भी कुछ मालूम नहीं पड़ता और उस समय गतागत का भी कुछ बोध नहीं होता ।१९-२४। ऐसी स्थिति का भावनाओं एवं अनुमान द्वारा कुछ चिन्तन करके यह कहा गया है कि उस समय वे सव पदार्थ उस सदसदात्मक, शाश्वत परम कारण में प्रतिष्ठित होते है | यह स्वात्मिका प्रवृत्ति कारण द्वारा अनिर्देश्य है । सृष्टि के इन सातों उपादानों के इस प्रकार क्रमशः विलय कहे जाते है । प्रत्याहारकाल में इसी प्रकार इन सातो प्राकृत पदार्थों का परस्पर मनुप्रवेश होता है | सातों द्वीप, समस्त पर्वत, सातों लोक एवं सब समुद्र इन सब को जिसने आवृत किया है, वह विशाल ब्रह्माण्ड सर्व प्रथम जलराशि में विलीन होता है । और तदनन्तर वह जलावरण ज्योति पदार्थ में विलय होता है | उसके बाद उस तेजस गावरण को वायु ग्रसता है और उस वायवीय आवरण को आकाश समेट लेता है | उस आकाशीय आवरण को भूतादि तामस अहङ्कार तत्व ग्रसता है । भूतादि को बुद्धि रूप महत्तत्त्व ग्रसता है । उस महत्तत्त्व को अव्यक्त ग्रसता है, उसके बाद गुणों में समानता हो जाती है । सृष्टि का यह संहार एवं विस्तार ब्रह्मनिष्ठ अव्यक्त प्रकृति से होता है । सृष्टि के लिये ही वह इन विकारों को ग्रसती एवं