पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५४

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यधिकशततमोsध्याय: अचभिः संतते तस्मिंस्तिर्यगूर्ध्वमथस्ततः । ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुरत्ति प्रकाशकम् ॥ प्रलीयते तदा तस्मिन्दीपाचिरिव मारुते प्रनष्टे रूपतन्मात्रे हृतरूपो विभावसुः । उपशाम्यति तेजो हि वायुना धूयते महत् निरालोके तदा लोके वायुभूते च तेजसि । ततस्तु मूलमासाद्यो वायुः संभवमात्मनः ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक्च दोधवीति दिशो दश । वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते च तत् प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्टत्यनावृतम् । अरूपमरसस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत् सर्वमापूरयन्नादैः सुमहत्तत्प्रकाशते । परिमण्डलं तच्छुषिरमाकाशं शब्दलक्षणम् शब्दमात्रं तथाकाशं सर्वमावृत्य तिष्ठति । तं तु शब्दगुणं तस्य भूतादिर्ग्रसते पुनः भूतेन्द्रियेषु युगपद्भूतादौ संस्थितेषु वै । अभिमानात्मऋो ह्येष भूतादिस्तामसः स्मृतः भूतादि ग्रसते चापि महान्वै बुद्धिलणः । महानात्मा तु विज्ञेयः संकल्पो व्यवसायकः १०३३ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० नोचे ऊपर, इधर-उधर सर्वत्र अग्नि की लपटो के फैल जाने पर ज्योति के प्रकाशमय गुण रूप को वायु अपने में समेट लेती है, उस समय वायु में वह तेजोराशि दीपक शिक्षा की भांति विलीन हो जाती है तन्मात्रा के विनष्ट हो जाने पर अग्नि का रूप नष्ट हो जाता है, जिससे तेज शान्त पड़ जाता है, वायु से यह समस्त जगत् अतिशय कम्पायमान हो उठता है | तेज के वायु के रूप में परिणत हो जाने पर जब समस्त लोक आलोक विहीन हो जाता है, तव वायु अपने मूल उत्पत्ति स्थान का माश्रय ग्रहण करता है और ऊपर नीचे इधर उधर सर्वत्र दसों दिशाओं को बारम्बार कम्पित करता है । तदुपरान्त वायु के स्पर्शात्मक गुण को आकाश अपने मे समेट लेता है परिणाम स्वरूप वायु का वेग शान्त हो जाता है उस समय केवल मनावृत आकाश स्थित रहता है, कोई रूप रस, गन्ध, स्पर्श एवं मूर्ति उसको नहीं रहतो, अपने भीषण निनाद से जगत् को पूरित करता हुआ वह मण्डलाकार आकाश प्रकाशित होता है, वह केवल शब्दात्मक रहता है, उसमें केवल पोल रहती है । इस प्रकार केवल शब्द गुण युक्त आकाश समस्त भूतों को आवृत कर स्थिर रहता है । उसके बाद उस शब्दगुणमय आकाश को भी भूतादि ग्रस लेता है |१२-१८। समस्त भूतों को एवं उन आश्रित समस्त इन्द्रियों को एक साथ ही यह अहंकार तत्त्व ग्रस लेता है, यह भूतादि तामस अर्थात् अहंकारतस्व के नाम से विख्यात है । उस भूतादि तामस को भी बुद्धि रूपी महत्तत्त्व ग्रसता है । यही महत्तत्त्व ही संकल्प एवं अध्यवसायात्मक है | तत्व- चिन्तापरायण लोग इसी को बुद्धि, मन, लिङ्ग, महान् एवं अक्षर प्रभृति पर्यायवाची शब्दों से पुकारते फ़ा०-१३०