पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५३

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१०३२ वायुपुराणम् परं तदनु कल्पानासपूर्ण कल्पसंक्षये । उपस्थिते महाघोरे ह्यप्रत्यक्षे तु कस्यचित् अन्ते दुसस्य संप्राप्ते पश्चिमस्य मनोस्तदा । अन्ते कलियुगे तस्मि ( x क्षीणे संहार उच्यते संप्रक्षाले तदा वृत्ते प्रत्याहारे ह्यपस्थिते । प्रत्याहारे तदा तस्मिन्भूततन्मात्रसंक्षये महदादेविकारस्य विशेषान्तस्य संक्षये | स्वभावकारिते तस्मि) प्रवृत्ते प्रतिसंचरे आपो ग्रसन्ति वै पूर्वं भूमेर्गन्धात्मकं गुणम् | आत्तगन्धा ततो भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते प्रविष्टे गन्धतन्मात्रे तोयादस्था धरा भवेत् आपस्तदा प्रनष्टा वै वेगवत्यो महास्वनाः । सर्वभापूरयित्वेदं ठन्ति रन्ति च अपामस्ति गुणो यस्तु ज्योतिषे लोयते रसः । नश्यन्त्यापस्तदा तच्च रसतत्मात्रसंक्षयात् तेजसा संहृतरसा ज्योतिष्ट्वं प्राप्नुवन्त्युत | ग्रस्ते च सलिलं तेजः सर्वतोमुखमीक्ष्यते अथान्निः सर्वतो व्याप्त आदत्ते तज्जले तदा । सर्वमापूर्यतेऽचिभिस्तदा जगदिदं शनैः ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ 111 ॥८ ॥ ॥१० ॥११ उस प्रत्याहार में समस्त अव्यक्त (?) भूतों को व्यक्त ग्रस लेता है ? । कल्पों के क्षय काल के थोड़े शेष रहने पर ही सृष्टि के इस प्रत्याहार का कार्य प्रारम्भ हो जाता है । सब से अन्तिम द्रुम नामक मनु की अधिकारावधि के अन्तिम अवसर पर कलियुग के अवसान मे यह घोर संकट काल उपस्थित होता है । उस समय यह सारी सृष्टि अप्रत्यक्ष (मव्यक्त) मे परिणत हो जाती है, वही सृष्टि का संहार कहा जाता है ।१-४। उस प्रति संचर काल के प्रवृत्त होने पर जब सृष्टि का प्रत्याहार उपस्थित होता है, उस समय भूतों को तन्मात्राओं का भी विनाश होता है । महदादि विशेषान्त समस्त विकार क्षय को प्राप्त होते है | यह सब स्वाभाविक ढंग पर घटित होता है। सर्वप्रथम जलराशि भूमि के गन्धगुण को ग्रस लेती है, जिससे भूमि गन्ध- विहीन होकर जल में विलीन हो जाती है। और इस प्रकार जल मे गन्ध-तन्मात्रा के प्रविष्ट हो जाने से पृथ्वी जल रूप में परिणत हो जाती है। उसके बाद वह जलराशि समस्त जगत् मे व्याप्स होकर वेगवान् एवं अति मुखरित होकर सर्वत्र संचरित और स्थिर होने लगती है। तदनन्तर जल का जो रस गुण है वह ज्योति (तेज) में लीन हो जाता है, और इस प्रकार रस तन्मात्रा के नष्ट हो जाने से जलराशि समाप्त हो जाती है। तेज के द्वारा विनष्ट रस के ज्योति में परिणत हो जाने पर जलराशि का जब सर्वथा अभाव हो जाता है तब सभी ओर तेज ही तेज दिखाई पड़ने लगता है। समस्त जगत् में व्याप्त अग्नि उस समय जल को अपने मे ग्रहण कर लेती है, उसकी लपटो से यह जगन्मण्डल शनैः शनै पूर्ण हो जाता है |५- ११॥ X धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति |