पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५२

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः मद्यपो मद्यपैः सार्धं भूतसंघैश्च मोदते । सोऽर्च्यमानो महोपृष्ठे सर्त्यानां वरदो भवेत् ॥ इति होवाच भगवान्वायुर्वाक्यमिदं वरः इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते शिवपुरवर्णनं नामकशततमोऽव्यायः ॥१०१।। अथ द्वयधिकशततमोऽध्यायः प्रतिसर्गवर्णनम् सूत उवाच प्रत्याहारं प्रवक्ष्यामि परस्यान्ते स्वयंभुवः । ब्रह्मणः स्थितिकाले तु क्षीणे तस्मिस्तदा प्रभोः यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वसीश्वरः | अव्यक्तान्प्रसते व्यक्तं प्रत्याहारे च कृत्स्नशः १०३१ अध्याय १०२ प्रतिसर्ग- वर्णन ॥३५५ ॥१ ॥२ सामान्य मनुष्यों को वरदान देता है । भगवान् वायु ने इस सुन्दर कला को नैमिपारण्यवासी ऋषियों को सुनाया था |३५०-३५५॥ श्री वायुमहापुराण में शिवपुरवर्णन नामक एक सौ एकवाँ अध्याय समाप्त ॥१०१॥ सूत बोले-- ॠपिवृन्द ! अब इसके वाद में परम पुरुषोत्तम स्वयम्भू भगवान् के प्रत्याहारी का वर्णन कर रहा हूँ | परम ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा के स्थिति काल के समाप्त होने पर ईश्वर जिस प्रकार अपनी आत्मा मे परम सूक्ष्म रूप में इस समस्त जगत् को स्थिर कर लेते है उसे बतला रहा हूँ । १. सृष्टि को संकुचित करने की प्रक्रिया |