पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०२७

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१००६ वायुपुराणम् ताराग्रहाणां सर्वेषामधस्ताच्चरते बुधः । तस्योर्ध्वं चरते शुक्रस्तस्मादूर्ध्वं च लोहितः ततो बृहस्पतिश्चोर्ध्वं तस्मादूर्ध्वं शनैश्चरः । ऊर्ध्वं शतसहस्रं तु योजनानां शनैश्चरात् सप्तर्षमण्डलं कृष्णमुपरिष्टाप्रकाशते । ऋषिभिस्तु सहस्राणां शतादूर्ध्वं विभाव्यते योऽसो तारामये दिव्ये विमाने ह्रस्वरूपके | उत्तानपादपुत्रोऽसौ मेढीभूतो ध्रुवो दिवि त्रैलोक्यस्यैष उत्सेधो व्याख्यातो योजनैर्मया | मन्वन्तरेषु देवानामिज्या यत्रैव लौकिको वर्णाश्रमेभ्य इज्या तु लोकेऽस्मिन्या प्रवर्तते । सर्वासां देवयोनीनां स्थितिहेतुः स वै स्मृतः त्रैलोक्यमेतद्वघाख्यातभत ऊर्ध्वं निबोधत | ध्रुवादूर्ध्व महर्लोको यस्मिस्ते कल्पवासिनः ॥ ( एकयोजनकोटी सा इत्येवं निश्चयं गतम्

॥१३८ द्वे कोटयौ तु महर्लोकास्मस्ते कल्पवासिनः) | यत्र ते ब्रह्मणः पुत्रा दक्षाद्या साधकाः स्मृताः ॥१३६ चतुर्गुणोत्तरादूर्ध्व जनलोकात्तपः स्मृतम् । वैराजा यत्र ते देवा भूतदाहविवर्जिताः ।।१४० षड्गुणं तु तपोलोकात्सत्यलोकान्तरं स्मृतम् । अपुनर्मारकामानां (णां) ब्रह्मलोकः स उच्यते ॥ १४१ ॥१३२ ॥१३३ ॥१३४ -॥१३५ ॥१३६ ॥१३७ सभी तारा ग्रहों में बुध निम्न प्रदेश चारी है, उसके ऊपर शुक्र का लोक है, उससे ऊपर मङ्गल है, उससे ऊपर बृहस्पति तदनन्तर शनैश्चर का निवास है, शनैश्चर से ऊपर एक लाख योजन पर सप्तर्षि मण्डलों का प्रकाश होता है | इन सप्तर्षियों से भी एक लाख योजन ऊपर तारामय दिव्य लघु विमान में उत्तानपाद का सुत ध्रुव स्वर्ग लोक के प्रमुख चिह्न स्वरूप होकर विराजमान रहते हैं । १३०-१३५१ योजनों द्वारा त्रैलोक्य की. ऊँचाई की व्याख्या में कर चुका | सभी मन्वन्तरों में जो लौकिक यज्ञादि सत्कर्मों के अनुष्ठान इस लोक में वर्णा- श्रमाचारानुमोदित ढंग से होते रहते हैं, वे हो समस्त देवयोनि में उत्पन्न होनेवाले प्राणियों की स्थिति के कारण भूत कहे जाते हैं । त्रैलोक्य की यह व्याख्या कर चुका अब इसके आगे का विवरण सुनिये |१३६-१३७३। उस ध्रुव लोक से ऊपर महर्लोक की स्थिति है, जिसमें उन कल्प पर्यन्त स्थिर रहनेवाले महात्माओं का निवास रहता है। उसकी दूरी ध्रुव से एक कोटि योजन की है- ऐसा निश्चय हो चुका है। उस महलक से दो कोटि योजन ऊपर जन लोक की स्थिति है, जिसमें सिद्धि के अभिलाषी ब्रह्मा के पुत्र दक्षादि कल्पपर्यन्त निवास करते हैं। जन लोक के चार कोटि योजन ऊपर तपो लोक की स्थिति स्मरण की जाती है, जिनमें भूतों के तापादि से सर्वथा विरहित वैराज नामक देवताओं का निवास कहा जाता है । तपोलोक से छ: गुणित अर्थात् छः कोटि योजन ऊपर सत्य लोक की स्थिति कही जाती है, वही पुनरावृत्ति विरहित जरामर - आदि विहीन सिद्धों का ब्रह्मलोक कहा जाता है । १३८ - १४११ उरा ब्रह्मलोक से उनका कभी भी पतन नही होता,

  • धनुश्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थो घ. पुस्तके नास्ति ।