पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०२६

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एकशततमोऽध्यायः ॥१२२ ॥१२४ ॥१२५ त्रसरेणवश्च येऽप्यष्टौ रथरेणुस्तु स स्मृतः । तेऽप्यष्टौ समवायस्था बलाग्रं तत्स्मृतं बुधैः बलाग्राण्यष्ट लिक्षा स्याद्यूका तच्चाष्टकं भवेत् | यूकाष्टकं यवं प्राहुरङ्ङ्गुलं तु यवाष्टकम् द्वादशाङ्गुलपर्वाणि वितस्तिस्थानमुच्यते । रत्निश्चाङ्गुलिपर्वाणि विज्ञेयो ह्येकविंशतिः चत्वारि विशतिश्चैव हस्तः स्यादङ्गुलानि तु । किष्कुरिनिविज्ञेयो द्विचत्वारिंशदङ्गुलः ॥१२३ षण्णवत्यङ्गुलं चैव धनुराहुर्मनीषिणः । एतद्गव्यूतिसंख्यार्थोपादानं धनुषः स्मृतम् धनुर्दण्डो युगं नाली तुल्यान्येतान्यथाङ्गुलैः । धनुषस्त्रिशतं नत्वमाहुः संख्याविदो जनाः धनुःसहस्रे द्वे चापि गव्यूतिरुपदिश्यते । अष्टौ धनुःसहस्राणि योजनं तु विधीयते एतेन धनुषा चैव योजनं तु समाप्यते । एतत्सहस्रं विज्ञेयं शक्रक्रोशान्तरं तथा योजनानां तु संख्यातं संख्याज्ञानविशारदः । एतेन योजनाग्रेण शृणुव्वं ब्रह्मणोऽन्तरम् महीतलात्सहस्राणां शतादूर्ध्वं दिवाकरः | दिवाकरात्सहस्रेण तावदूर्ध्वं निशाकरः पूर्ण शतसहस्रं तु योजनानां निशाकरात् । नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नमुपरिष्टात्प्रकाशते शतं सहस्रं संख्यातो मेरुद्वगुणितं पुनः । ग्रहान्तरमथैकंकसूर्ध्वं नक्षत्रमण्डलात् ॥१२६ ॥१२७ ॥१२८ ॥ १२६ ॥१३० ॥१३१ १००५ ॥१२० ॥१२१ भी जब माठ इकट्ठे हो जाते हैं, तब बुद्धिमान् लोग बलाग्र कहते हैं। ऐसे आठ बलायों की एक लिक्षा होती है, और आठ लिक्षा की एक यूका कही जाती है । आठ यूका का एक जब कहा जाता है और आठ जब का एक अंगुल होता है | वारह अंगुलियों के पोरों की एक वितस्ति होती है, और ऐसे ही इक्कीस पोरों की एक रत्नि जाननी चाहिये |११९-१२२१ चोवीस अंगुलों का एक हाथ होता है। बयालीस अंगुल अर्थात् दो रत्नि का एक किष्कु होता है । वुद्धिमान् लोग छानवे अंगुलों का एक धनुष बतलाते हैं । यह धनुष गब्यूति अर्थात् दो कोस परिमाण मापने में एक साधन कहा जाता है । संख्या के तत्त्वों के जाननेवाले लोग धनुष, दण्ड, युग और नाली को अंगुलों द्वारा एक समान बतलाते हैं, अर्थात् ये उपर्युक्त चारों परिमाण छानवे अंगुलों के कहे जाते है । तीन सौ धनुष परिमाण का एक नल्व कहा जाता है, और दो सहस्र धनुष की एक गव्यूति अर्थात् दो कोस होता है । आठ सहस्र धनुष का एक योजन बतलाया जाता है |१२३-१२६ | इस प्रकार धनुष के परिमाण द्वारा योजन तक का माप किया जाता है। संख्यातत्त्व विदों ने इसी पद्धति में योजन तक का परिमाण निश्चित किया है। इस योजन के परिमाण द्वारा ब्रह्मलोक की दूरी सुनिये । पृथ्वीतल से सौ सहस्र अर्थात् एक लाख योजन पर सूर्य का निवास है। सूर्य से सौ सहस्र योजन दूर चन्द्वमा है | १२७-१२६ । चन्द्रमा से सहस्र योजन दूर नक्षत्रों का प्रकाश होता है। मेरुमण्डल इस नक्षत्र लोक से दो लाख योजन पर अवस्थित है इस नक्षत्र मण्डल से ऊपर एक एक ग्रह परस्पर इतनी ही दूरी पर हैं ।