पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१८

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एकशतत्तमोऽध्यायः प्रथमानन्तरैरिष्ट्वा अन्तराः सांप्रतैः पुनः । निवर्ततीत्यासंवन्धोऽतीते देवगणे ततः ( ? ) विनिवृत्ताधिकाराणां सिद्धिस्तेषां तु मानसो | तेषां तु मानसोज्ञेया शुद्धा सिद्धिपरम्परा उक्ता लोकाश्च चत्वारो जनस्थानुविधिस्तथा । समासेन गया विप्रा भूयस्तं वर्तयामि वः वायुरुवाच मरीचिः कश्यपो दक्षो वसिष्ठश्चाङ्गिरा भृगुः । पुलस्त्यः पुलहश्चैव क्रतुरित्येवसादयः पूर्वं ते संप्रसूयन्ते ब्रह्मणो मनसा इह । ततः प्रजाः प्रतिष्ठाप्य जनसेवाश्रयन्ति ते ) कल्पदाहप्रदीप्तेषु तदा कालेषु तेषु वै । भूरादिषु सहान्तेषु भृशं व्याप्तेष्वथाग्निना शिखा संवर्तका ज्ञेया प्राप्नुवन्ति सदा जनाः । यामा 'गणाः सर्वे महर्लोक निवासिनः महर्लोकेषु दोप्तेषु जनमेवाऽऽश्रयन्ति ते । सर्वे सूक्ष्मशरीरास्ते तत्रस्थास्तु भविन्त ते तेषां ते तुल्यसामर्थ्यास्तुल्यमूर्तिधरास्तथा । जनलोके विवर्तन्ते यावत्संप्लवते जगत् व्युष्टायां तु रजन्यां वै ब्रह्मणोऽव्यक्तयोनिनः । अहरादौ प्रसूयन्ते पूर्ववत्क्रमशस्त्विह ६६७ ।।४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ त्कालीन देव वर्तमान देवताओं के लिए | इस प्रकार परवर्ती काल में उत्पन्न होनेवाले अपने पूर्ववर्ती की सन्तुष्टि के लिये इन यज्ञादिकों का अनुष्ठान करते हैं। देवगणों के व्यातीत होने पर उनका सम्बन्ध निवृत्त हो जाता है | उन महर्लोक निवासियों का अधिकार काल जब समाप्त हो जाता है, उस समय भी उनको परम विशुद्ध मानसी सिद्धियों की परम्परा उनमें विद्यमान जाननी चाहिये । विप्रवृन्द ! आप लोगों को जनलोक तथा उससे निम्नवर्ती चारों लोकों की चर्चा मंक्षेप में सुना चुका पुनः उसी का विस्तार पूर्वक वर्णन कर रहा हूँ ॥४५-४८५ ने वायु ने कहा- ऋषिगण | मरोचि, कश्यप, दक्ष, वसिष्ठ, अङ्गिरा भृगु, पुलस्त्य पुलह और ऋतुं आदि ऋषिगण सर्व प्रथम ब्रह्मा के मानस पुत्रो के रूप में उत्पन्न होते हैं, और अपनी-अपनी प्रजाओं का विस्तार करके पुनः जनलोक का आश्रय लेते हैं ।४६५०१ कल्प के अवसान में संवर्तक नामक अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला से जब भू भुव स्वर मह – ये चारो लोक प्रज्वलित हो उठते है, इनमें सब ओर से अग्नि फैल जाती है, तब महलोक निवासी यमादि देवगण सूक्ष्म शरीर धारण कर जनलोक का आश्रय ग्रहण करते हैं, और तदुपरान्त वहीं पर निवास करने लगते है १५१-५३। वहाँ पहुँच कर वे जनलोक निवासियों के समान सामर्थ्यशील स्वरूपवान् एवं ऐश्वर्यशाली हो जाते है और उसी रूप मे जगत् के महान विनाशकाल तक स्थिति रहते हैं | अव्यक्त योनि भगवान् ब्रह्मा की महारजनी के व्यतीत होने पर जब पुन: उनके दिन का प्रारम्भ होता है

धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति |