पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१९

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दर्दद वायुपुराणम् स्वायंभुवादयः सर्वे मरीच्यन्तास्तु साधकाः । देवास्ते वै पुनस्तेषां जायन्ते निधनेविह यामादयः क्रमेणैव कनिष्ठाद्याः प्रजापतेः । पूर्व पूर्व प्रसूयन्ते पश्चिमे पश्चिमास्तथा देवान्वये देवता हि सप्त संभूतयः स्मृताः । व्यतीताः कल्पजास्तेषां तित्रः शिष्टास्तथा परे आवर्तमाना देवास्ते क्रमेणतेन सर्वशः । गत्वा जवं जवोभावं दशकृत्वः पुनः पुनः ततस्ते वै गणाः सर्वे दृष्ट्वा भावेष्वनित्यताम् | भाविनोऽर्थस्य च बलात्पुण्याख्यातिवलेन च निवृत्तवृत्तयः सर्वे स्वस्था: सुमनसस्तथा । वैराजे तूपपद्यन्ते लोकमुत्सृज्य तज्जनम् ततोऽन्येनेव कालेन नित्ययुक्तास्तपस्विनः । कथनाच्चैव धर्मस्य तेषां ते जज्ञिरेऽन्दये इहोत्पन्नास्ततस्ते वै स्थानान्यापूरचन्त्युत । देवत्वे च ॠषित्वे च मनुष्यत्वे च सर्वशः एवं देवगणाः सर्वे दशकृत्वो निवर्त्य वै । वैराजेषूपपन्नास्ते दश तिष्ठन्त्युपप्लवान् पूर्णे पूर्णे ततः कल्पे स्थित्वा वैराजके पुनः । ब्रह्मलोके विवर्तन्ते पूर्वपूर्वक्रमेण तु एस्मिन्ब्रह्मलोके तु फल्पे वैराजके गते । वैराजं पुरनप्येके कल्पस्थानमकल्पयन् ॥५६ १९५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ।।६५ ॥६६ तब वे स्वायम्भुव आदि मनु, मरीचि आदि साधक ऋषिगण अपने-अपने पूर्ववर्ती पुरुषों को मृत्यु के उपरान्त पूर्वक्रम से पुनर्जन्म ग्रहण करते हैं १५४-५६६ तदनन्तर यमादि देवगण पूर्वकथित ज्येष्ठ कनिष्ठादि क्रम से जन्म ग्रहण करते हैं | देववंश में देवताओं की सात विभूतियों का स्मरण किया जाता है। उनमें से चार कल्पज देवता व्यतीत हो चुके है। तीन शेष हैं । देवता भी उक्त कम से दस बार पुनः पुनः जन्म मरण को प्राप्त होकर संसार के सभी पदार्थों एवं भावों में अनित्यता का दर्शन करते हैं, तदनन्तर भावी को बलवत्ता से एवं अपने किये गए पुण्य कर्मों के प्रभाव से वे प्रशांत चित्त हो जाते है, और सभी कार्यों से निवृत्त होकर स्वस्थ मन से इस जन लोक का परित्याग कर वैराज लोक को प्राप्त होते हैं १५७-६१। तत्पश्चात् बहुत काल के उपरान्त नित्य योगाभ्यास परायण तपोनिष्ठ वे लोग धर्म कीर्तन के प्रभाव से उन परम धार्मिकों के वंश में जन्म ग्रहण करते है | और इस प्रकार उत्पन्न होकर देवत्व, ॠषित्व एवं मनुष्यत्व को प्राप्त कर उन उन स्थानों को पूर्ति करते है। सभी देवगण इस प्रकार दस वार जन्म ग्रहण करने के बाद वैराज नामक लोकों में आश्रय प्राप्त कर दस कल्प पर्यन्त निवास करते हैं |६२-६४। एक एक कल्प के पूर्ण होने पर चैराज नामक लोकों मे स्थित हो कर वे देवगण पूर्व पूर्व क्रम से ब्रह्म लोक स्थित होते हैं। वैराज के कल्पो के व्यतीत हो जाने पर वे इस ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। कुछ लोग चैराज लोक को कल्प पर्यन्त स्थायी मानते हैं, इसी पूर्व कथित क्रमानुसार वे लोग अपने-अपने तप के प्रभाव से वैराज लोक में जा जाकर वहाँ दस कल्प पर्यस्त निवास कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते है । इस प्रकार वैराज लोक में जो लोग प्राप्त होते है, वे दस चार जन्म