पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१७

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वायुपुराणम् प्रजानां पतयः सर्वे वर्तन्ते तत्र तैः सह । निःसत्त्वा निर्समाश्चैव तत्र ते ह्यर्ध्वरतसः ऋभुः सनत्कुमाराचा वैराज्यास्ते तपोधनाः । सन्वन्तराणां सर्वेषां सावर्णानां ततः स्मृताः ॥ चतुर्दशानां सर्वेषां पुनरावृत्तिहेतवः ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ योगं तपश्च सत्यं च समाधाय तदाऽऽत्मनि । पष्ठे काले निवर्तन्ते तत्तदाह (?) विपर्यये सत्यस्तु सप्तमो लोको ह्यपुनर्मागंगामिणाम् । ब्रह्मलोकः समाख्यातो ह्यप्रतीघातलक्षणः +पर्यासपारिमाण्येन सूर्लोकः समितिः स्मृतः । भूभ्यन्तरं यदादित्यादन्तरिक्षं भुवः स्मृतम् सूर्यध्रुवान्तरं यच्च स्वर्गलोको दिवः स्मृतः | ध्रुवाज्जनान्तरं यच्च महर्लोकः स उच्यते विख्याताः सप्त लोकास्तु तेषां वक्ष्यामि सिद्धयः | भूर्लोकवासिनः सर्वे अन्नादास्तु रसात्मकाः ॥४२ भुवे स्वर्गे च ये सर्वे सोमपा आज्यपाश्च ते । चतुर्थे येऽपि वर्तन्ते महर्लोकं समाश्रिताः विज्ञेया मानसो तेषां सिद्धिर्वै पञ्चसक्षणा | सद्यश्चोत्पद्यते तेषां मनसा सर्वभीप्सितम् एते देवा यजन्ते वै यज्ञैः सर्वैः परस्परम् । अतीतान्वर्तमानांश्च वर्तमानाननागतान् ॥४३ ॥४४ ॥४५ विरागी ऋषिगण तपो लोक में निवास करते हैं। सावर्णादि चौदह मनु गणों के अधिकार काल को पुन रावृत्ति इसो तपोलोक से कही जाती है | उस महान् लोक विनाश काल के अवसर पर जन लोकादि निम्न श्रेणी के लोकों में निवास करनेवाले प्राणिवृन्द अपने अपने योग, तप, सत्य आदि का आत्मा में समाधान करके उस तपोलोक में आश्रय ग्रहण करते हैं | ३४-३८ सत्य सातवां लोक है, वहाँ जाकर पुनगवृत्ति नहीं होती इस सत्य लोक का कभी विनाश नही होता — इसी का दूसरा नाम ब्रह्म लोक भी है, परिमाणों के अनुसार भूलोक मध्यवर्ती माना जाता है, भूमि तल से लेकर सूर्य पर्यंन्त भुक्र्लोक को स्थिति कही जाती है, सूर्य से लेकर ध्रुव पर्यन्त स्वर्ग लोक की स्थिति है, दिव लोक भी करते हैं। ध्रुव से लेकर जनलोक पर्यन्त महर्लोक है, इसी प्रकार अन्यान्य लोकों की भी स्थिति है । अब उन परम विख्यात सातों लोकों की सिद्धियों की चर्चा कर रहा हूँ | भूलोक में निवास करनेवाले सव अन्नभक्षी रसास्वादी हैं, भुवर्लोक में निवास करनेवाले सोमपायो हैं अर्थात् वे सोम का पान करते हैं, स्वर्ग लोक निवासियो का आहार आज्य पान है। जो चतुर्थ महर्लोक से निवास करते हैं, उनको पाँच मानमिक सिद्धियाँ कही जाती हैं, मन में सङ्कल्प मात्र करने से उन्हें समस्त मनोवांछित सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है | ३६-४४॥ समस्त देवगण सभी प्रकार यज्ञों का अनुष्ठान करके परस्पर सन्तुष्टि लाभ करते है । वर्तमान देव अतोतकालीन देवताओं के लिए भविष्य + इत आरभ्य सर्वश्लोको न विद्यतेग पुस्तके |