पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१४

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एकशततमोऽध्यायः

  • यावन्तश्चैव ते लोका दह्यन्ते येन ते प्रभो । एतन्नः कथय प्रोत्या त्वं हि वेत्थ यथातथम्

एवमुक्तस्ततो वायुर्मुनिभिविनयात्मभिः | प्रोवाच मधुरं वाक्यं यथातत्त्वेन तत्त्ववित् वायुरुवाच ॥ ११ ॥१२ चतुर्दशैव स्थानानि दणितानि महर्षिभिः | लोकाख्यानि तु यानि स्युर्येषु तिष्ठन्ति मानवाः सप्त तेषु कृतान्याहुरकृतानि तु सप्त वै । भूरादयास्तु संख्याताः सप्तं लोकाः कृतास्त्विह अकृतानि तु सप्तैव प्राकृतानि तु यानि वै । स्थानानि स्थानिभिः सार्ध कृतानि तु निबन्धनम् पृथिवी चान्तरिक्षं च दिव्यं यच्च महः स्मृतम् । स्थानान्येतानि चत्वारि स्मृतान्यार्णवकानि च ॥१३ क्षयातिशययुक्तानि तथा युक्तानि वक्ष्यते[च्म्यहम् ]। यानि नैमित्तिकानि स्युस्तिष्ठन्त्याभूतसंप्लवम् ॥ जनस्तपश्च सत्यं च स्थानान्येतानि त्रीणि तु । ऐकान्तिकानि सत्त्वानि तिष्ठन्तीहाऽऽप्रसंयमात् ॥१५ व्यक्तानि तु प्रवक्ष्यामि स्थानान्येतानि सप्त वै| भूर्लोकः प्रथमस्तेषां द्वितीयस्तु भुवः स्मृतः ॥१६ स्वस्तृतीयस्तु विज्ञेयश्चतुर्थी वे महः स्मृतः । जनस्तु पञ्चमो लोकस्तपः षष्ठो विभाव्यते ॥१७ ६६३ ॥८ HIE

  • अयं सार्धश्लोको नास्ति ग. पुस्तके |

फा०-१२५ ॥ १० वह किस प्रकार का है, हम समझते हैं, प्रत्येक लोकों में बहुसंख्यक पुण्यात्मा जव निवास करते होगे, अतः उन महात्माओं के निवास के जितने लोक है और वे जिस प्रकार जलाये जाते हैं, उन्हे आप वतलावें, क्योंकि आप हम सबों पर प्रसन्न है, और इन सब बातों को यथार्थ रूप में जानते है । विनत मुनियो के इस प्रकार कहने पर तत्ववेत्ता वायु ने मधुर वाणी में कहा १७-६१ वायु बोले- ऋषिवृन्द ! महपियों ने ऐसे चौदह लोकों को बतलाया है, जिनमें पुण्यात्मा मानवगण निवास करते हैं, उनमें सात को कृत और सात को अकृत लोक कहते है । भू आदि सात लोक कृत है |१०-११। सात प्राकृत लोक अकृत कहे जाते हैं | स्थानाभिमांनी देवताओं के साथ कृत लोकों की स्थिति है। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, दिव्य और मह - ये चारों लोक आर्णविक नाम से प्रसिद्ध है | ये क्षय और वृद्धिवाले लोक कहे जाते है । जो लोक क्षय वृद्धि रहित है उनके विषय में बतला रहा हूँ । नैमित्तिक लोक जितने है, वे प्रलय पर्यन्त स्थिर रहने वाले हैं। जन, तप, और सत्य — ये तीन लोक एकान्तिक और सत्वगुण सम्पन्न हैं, इनकी स्थिति कल्प पर्यन्त रहती है । १२-१५१ सात व्यक्त कहे जाने वाले लोकों का वर्णन कर रहा हूँ, उन सब में प्रथम भूलोक है, दूसरा भुव, तोसरा स्वर्, चौया मह, पाँचव छठाँ तप और सातवां सत्य है । इनके बाद निरालोक ( घोर अन्धकार है ) । ब्रह्मा जन, भूः - ऐसा