दर्दर वायुपुराणम् अथैकशततमोऽध्यायः भूलोकादिव्यवस्थावर्णनम् वायुरुवाच असाधारणवृत्तैस्तु हुतशेषादिभिवजैः । धर्मा वैशेषिकाश्चैव आचीर्णाः सूक्ष्मदशभिः ते देवैः सह तिष्ठन्ति महर्लोकनिवासिनः । चतुर्दशैते मनवः कीर्तिताः कीर्तिवर्धनाः अतीता वर्तमानाश्च तथैवानागताश्च ये | ऋषिभिर्दैवतैश्चैव सह गन्धर्वराक्षसः मन्वन्तराधिकारेषु जयन्तीह पुनः पुनः । देवाः सप्तर्षयश्चैव मनवः पितरस्तथा सर्वे ह्यपि कमातीता महर्लोकं समाश्रिताः । ब्राह्मणैः क्षत्रियैवैश्यैर्धामिकैः सहितैः सुराः तैस्तथ्यकारिभिर्युक्तैः श्रद्धावद्भिरपितैः । वर्णाश्रमाणां धर्मेषु श्रौतस्मार्तेषु संस्थितैः ॥ विनिवृत्ताधिकारास्ते यावन्मन्वन्तरक्षयः ऋषय ऊचु: महर्लोकेति यत्प्रोक्तं मातरिश्वस्त्वथा विभो । प्रतिलोके च कर्तव्यसनेकैः समधिष्ठिताः ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ 1 ॥६ 2 अध्याय १०९ भूर्लोकादि की व्यवस्था वायु वोले - ऋषिगण ! जो सूक्ष्म दर्शी असामान्य चरित्रबल सम्पन्न द्विजाति वृन्द, यज्ञादि का सुन्दर अनुष्ठान कर शास्त्र सम्मत विशेष-विशेष धर्मों का पालन करते हैं, वे सब देवताओं के साथ महर्लोक में निवास करते है। मैंने पूर्व प्रसंग में जिन अतीत, भविष्य एवं वर्तमान कालीन परम यशस्वी चौदह मनुओ का वर्णन किया है, वे ऋषियो, देवताओ गन्धर्वो एवं राक्षसों के साथ प्रत्येक मन्वन्तरों में पुनः पुनः जन्म धारण करते है |१-३३। देवगण सप्तपि, मनुगण एवं पितर गण ये सभी धार्मिक विचारों वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादि के साथ क्रमशः अतीत होकर महर्लोक मे आश्रय ग्रहण करते हैं | अभिमान रहित, सत्यवादी, योगपरायण, श्रोतस्मार्त कर्मों में श्रद्धा रखनेवाले, वर्णाश्रमाचार में निष्ठावान् ब्राह्मणादि प्रजाओं के साथ वे लोग मन्वन्तर के समप्त हो जाने पर विधि निर्दिष्ट काल के बाद अपने अपने अधिकारों से विनिवृत्त होकर महर्लोक मे गाश्रित होते हैं |४-६॥ 1 ऋषियों ने पूछा- परम समर्थ मातरिश्वन् ! आप जिस महर्लोक की चर्चा कर रहे हैं,