पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१२

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शततमोऽध्यायः तथा ह्यप्रतिसंसृष्टे महदादौ महेश्वरे । महत्प्रलीयतेऽऽव्यक्त गुणसाम्यं ततो भवेत् इत्येष च समाख्यातो मया ह्याभूतसंप्लवः । ब्रह्मनैमित्तिको होष संप्रक्षालनसंयमः समासेन समाख्यातो भूयः किं वर्तयामि वः | + य इद धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाऽप्यभीक्ष्णशः ॥ कीर्तनाच्छ्रवणाच्चापि महतीं सिद्धिमासुयात् ॥२४५ x ब्राह्मणो लभते विद्यां क्षत्रियो विजयी भवेत् । वैश्यस्तु धनलाभाग्व ( भावचैव ) शूद्रः सुखमवाप्नुयात् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते मन्वन्तरनिसर्गादिकथनं नाम शततमोऽध्यायः ।। १००।। ६६१ ॥२४३ ॥२४४ श्री वायुमहापुराण में मन्वन्तरनिसर्गकथनं नामक सौवाँ अध्याय समाप्त ॥१००॥ द्वारा ब्रह्मा शान्त हो जाते हैं ! उस समय जब अव्यक्त में महत् विलीन हो जाता है और महदादि सब महेश्वर में तद्रूप हो जाते हैं, तब गुण साम्य हो जाता है। प्रलय का वृत्तान्त मैं आप लोगों को सुना चुका, यही ब्रह्मा का नैमित्तिक प्रलय कहा जाता है, इसका वर्णन मैंने संक्षेप ही में किया है, अब बतलाइये आप लोगों को पुनः क्या बतलाऊँ ? जो व्यक्ति इस वृत्तान्त को धारण करता है, अथवा नित्य श्रवण करता है, वह महान् सिद्धि प्राप्त करता है, क्योकि इसके श्रवण एवं कीर्तन से भी महान् फल की प्राप्ति होती है । इसके माहात्म्य से ब्राह्मण को विद्या प्राप्ति होती है, क्षत्रिय विजयी होता है, वैश्य धन प्राप्त करता है, शूद्र सुख लाभ करता है | २४१-२४६। + एतदर्धस्थाने य इदं ध्यायते नित्यं धारयेद्यः समाहित इति घ. पुस्तके | x अयं श्लोको न विद्यते क. ग. घ. ङ. पुस्तकेपु । ॥२४६