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( १५० ) रुद्राष्टाध्यायी - [ दशमो- तथा ( बृहस्पतिः ) देवानां पतिः पालायेश (नः ) अस्माकम् (वरित ) अविनाशं विदधातु | [ यजु० २५/१९ ] ॥ १ ॥ भावार्थ-वृद्धश्रवा (बडी कीर्तिमाले ) इन्द्र हमारे निमित्त सस्ति विधान करें, सर्वज्ञपा हमारे निमित्त स्वस्ति विधान करें, अरिष्टनेमि तार्क्ष्य (तार्क्ष्य -श्य अर्थात् जो रथको नेमिकी अर्थात् चक्रधारीको गति कोई भी रोकने में समर्थ नहीं है, जिसको हो अरिष्टनेमि ताइये कहते है, यहाँप रथरूपसे वर्णन हुआ ) हमारे निमित्त स्वस्त विधान करें, बृहस्पति हमारे निमित्त स्वरित विधान करे ॥ १ ॥ मन्त्रः ।

  • पर्य+पृथि॒ष्याम्पयुऽओष॑धीषुपयोध्य

तरक्षेपयापर्यस्वती ॥ प्रदिर्श+सन्तु ह्यम् ॥ २ ॥ ॐ पय इत्यस्य लुशोधानाक ऋषिः । विराट् छन्दः | अग्निदेवता । वि० पू० ॥ २ ॥ भाष्यम् - हे हे देव त्वम् ( पृथिव्याम् ) भूम्याम ( पयः ) रसम् (धा: ) हि स्थाप(च) (धीषु ) वनस्तेषु ( पयः ) रसम् ( धाः ) स्थापय ( दिवि ) स्वर्ग च ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिच ( पयः ) रसम् (धाः ) स्थापय किच ( माम् ) मदर्थ ( प्रदिशः ) दिशो विदिशश्च ( पयस्वती:) पयस्वत्यो रसयुताः सन्तु | आहुतिपरिणामेन पृथिव्यादयो ममामीटदा भवन्वित्यर्थः । [यजु०१८:३६ ] ॥ २ ॥ भाषार्थ - पृथिवी देवी हमारे निमित्त ( अर्थात् हमको देनेके लिये ) रस धारण करे, औषधिय भी हमारे निमित्त रस धारण करें, स्वर्मलोक और अन्तरिक्षलोकमी हमारे निमित्त रस धारण करें अर्थात् साइतिके परिणामसे पृथिवी नादि हमको भगवरकृपा से अमीष्ट देनेवाले हों ॥ २ ॥ ऋविष्णराट॑मसि॒विष्णोरश्नप्त्रे॑स्त्योति- स्पूणोसि ॥ वैष्णुर- म॑सि॒वष्ष्ण॑वेवा ॥ ३ ॥